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[४५] मुनि आ रहे थे। कसुंबा गाँव आनेके पहले जंगलमें श्री चतुरलालजी जो आगे चल रहे थे उन्हें, श्री लल्लजी तथा श्री मोहनलालजीसे काफी अन्तर पड़ गया था। इतनेमें दो भील झाड़ीमेंसे निकले । श्री चतुरलालजीको पीछेसे कन्धे परसे पकड़कर एक भीलने नीचे चित गिरा दिया। पोटलेमें जो पात्र थे वे टूट गये। एक उनके पाँवपर बैठ गया और एक छातीपर चढ़ बैठा। श्री चतुरलालजी आवेशमें आ गये, दोनोंको उछालकर खड़े हो गये, दोनोंकी कलाई पकड़कर धकेल रहे थे कि श्री मोहनलालजी आ पहुँचे, पीछेसे श्री लल्लुजी भी आ रहे थे। उन्हें देखकर दोनों भीलोंके शरीर ढीले हो गये और गिड़गिड़ाने लगे। श्री लल्लुजी आ पहुँचे तब दोनों भीलोंको शिक्षा देकर छुड़ा दिया।
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विहार करते-करते मुनिगण नरोडा आये और सं.१९५९का चातुर्मास वहीं किया। चातुर्मासमें अहमदाबाद आदि स्थानोंसे मुमुक्षु मुनिसमागमके लिए समय-समयपर आते थे। वहाँसे तीर्थयात्राके लिए मुनिवर छोटे मारवाडकी ओर पधारे।
सादडीके पासका राणकपुर, पंचतीर्थमें एक तीर्थस्थान माना जाता है। वहाँ श्री लल्लजी आदि मुनि जानेवाले हैं ऐसा किसी विद्वेषी साधुको पता लगनेसे वह पहले ही सादडी चला गया और सब श्रावकोंको समझा दिया कि स्थानकवासी साधु यहाँ आनेवाले हैं, उन्हें कोई आहार-पानी न देवे। वे उन्मार्गी हैं, उनकी सहायता करनेसे मिथ्यात्व लगता है आदि बातें श्रावकोंके मनमें ठूसलूंसकर भर दी। जब वे मुनिवर राणकपुर पधारे, मंदिरमें दर्शन-भक्ति कर आहार-पानीके लिए गये तब आहारकी तो बात दूर रही किन्तु उन्हें पानी भी नहीं मिला। कोई गरम पानीसे स्नान कर रहा था, उसके पास एक मुनिने पानी माँगा तो भी उसने नहीं दिया। दूसरे दिन भिक्षाके लिए गये तब भी ऐसा ही हुआ। साथके मुनियोंको ऐसा लगा कि हमें विहार कर दूसरे गाँव चला जाना चाहिए, किन्तु श्री लल्लजी स्वामीने तो निश्चय किया कि प्राप्त परिषहको जीतना ही निर्ग्रन्थमार्ग है। कठिनाईसे डर जाना या भागते फिरना कायरका काम है। तीसरे दिन भी पानी तक नहीं मिला। यों निर्जल अट्ठम (तेला-तीन उपवास) पूरा हुआ।
इतनेमें खंभातका संघ जो यात्राके लिए निकला था उसी दिन राणकपुर आ पहुँचा। कोई मुनि हों तो उन्हें आहारदान करें ऐसी भावनासे उन्होंने तलाश की तो पता चला कि श्री लल्लुजी आदि मुनिवर यहाँ हैं। अतः उन्हें आमंत्रित कर भक्तिभावपूर्वक आहार-पानी बहोराया।
___ वहाँसे विहार करते हुए मुनिगण पालनपुर पधारे। वहाँके स्थानकवासी संघके अग्रणी पीतांबरदास महेता माने जाते हैं। वे मुनियोंसे मिले। बातचीतसे पता चला कि सभी मुनि पंचतीर्थकी यात्रा करके आ रहे हैं, इससे उन्हें लगा कि इनकी श्रद्धा बदल गयी है। स्थानकवासी तो प्रतिमाको नहीं मानते, मंदिरों में नहीं जाते। अतः उन्हें उलाहना देनेके हेतुसे कहा, "तीर्थ तो साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकारूप चार ही हैं, पाँचवाँ तीर्थ कहाँसे लाये? यदि मुनि भी यों सब जगह जाने लगेंगे तो श्रावकोंकी श्रद्धा धर्मपर कैसे रहेगी? यदि मुनि, भगवानके वचनके विरुद्ध व्यवहार करेंगे तो मुनिपना कहाँ रहेगा?" आदि आवेशमें आकर वे बहुत बोल गये, पर मुनिवर शान्त रहे।
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