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[ ४४ ] उपस्थितिमें ही सब पता चलता है । अतः आत्माके सिवाय अन्यमें लक्ष्य नहीं रखना चाहिए, किसीमें ममत्वभाव नहीं करना चाहिए, हुआ हो तो छोड़ देना चाहिए। जीव अकेला आया है और अकेला जायेगा। कोई किसीका दुःख नहीं ले सकता, कोई किसीको सुखी भी नहीं कर सकता । अपने द्वारा बाँधे हुए कर्म अन्य कोई भोगनेवाला नहीं है। अपने ही किये हुए कर्मका फल स्वयंको भोगना पड़ता है, तो फिर उसमें हर्ष-शोक क्या करना ? समभाव, सहनशीलता और धैर्य धारणकर ज्ञानपुरुषों द्वारा जाना गया आत्मा ही मुझे मान्य है ऐसे शरणभावसे उदयमें आये हुए कर्मोंको भोग लिया जाय तो नये कर्म नहीं बँधते और पुराने बाँधे हुए कर्म छूटते जाते हैं । देहको रखना हो तो भी आयुष्य पूर्ण होनेपर वह नहीं रहेगी, तो फिर ऐसी नाशवान देहमें मोह रखकर आत्माका अहित कौन करेगा? जो होना हो सो हो, पर अब तो एक आत्माके अतिरिक्त अन्यत्र चित्त नहीं लगाना है । अन्य - अन्य चित्त रखकर यह जीव अनन्त काल तक इस संसारमें भटका है । पर अब सत्पुरुषके समागमसे जो बोध सुना है, आत्माका माहात्म्य सुना है, 'आत्मसिद्धि' समझायी है उसमें मेरी रुचि रहे, वही स्वरूप मुझे प्राप्त हो, उसीका निरन्तर भान रहे, यही भावना कर्तव्य है । इतनी बातको पकड़ लोगी तो तुम्हारा काम हो जायेगा, समाधिमरण होगा ।"
उस साध्वीको भी यह विश्वास हो गया कि ये महात्मा पुरुष कहते हैं वही सच है, वही कर्तव्य है, वे बता रहे हैं वही छूटनेका मार्ग है । और, उनकी अनुपस्थितिमें भी वह उनके द्वारा उपदिष्ट 1 बोधपर विचार करती, भावना करती और बारंबार कहती भी थी कि "यह मेरा पाट नहीं, ये मेरे वस्त्र नहीं, यह शरीर मेरा नहीं, कुछ भी मेरा होनेवाला नहीं है । सब यहीं पड़ा रहनेवाला है । ज्ञानी पुरुष द्वारा जाना हुआ और अनुभव किया हुआ आत्मा ही सत्य है, नित्य है, सुखस्वरूप है, शरण करने योग्य है ।" यों इक्कीस दिन तक मात्र पानीके आधारपर उसके प्राण टिके रहे । प्रतिदिन श्री लल्लुजी स्वामी दर्शन-समागमका लाभ देते और सद्उपदेशसे धैर्य, सहनशीलता तथा आत्मभावनाका पोषण करते - छह पदका पत्र, आत्मसिद्धिशास्त्र, अपूर्व अवसर आदि उसे सुनाते और सत्पुरुषके प्रति शरणभाव और आत्मभाव टिकाकर रखनेके लिए कहते रहते। उसका मरण शान्तिसमाधिपूर्वक हुआ था और उसकी गति सुधर गयी थी, ऐसा स्वयं कई बार कहते थे ।
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इक्कीस दिन संथारा चला जिससे गाँवमें भी यह बात फैल गयी । किसी विद्वेषीने सरकारमें समाचार दे दिये कि घोरनदीमें एक बाईको भूखी रखकर मार दिया गया है। उसकी जाँच करनेके लिए जिलाधीश आया था। गाँवके लोगोंने उसे समझाया कि धर्मविधिके अनुसार अन्त समयमें मरनेवालेको आहारत्यागकी भावना होनेसे, उसे धर्मके नियमानुसार व्रत दिया जाता है और उसकी मृत्यु सुधरे तथा अच्छी भावना रहे ऐसा उपदेश देनेके लिए ही श्री लल्लुजी स्वामी उसके पास जाते थे । इसमें किसी प्रकारका कोई बलप्रयोग नहीं होता । इत्यादि प्रकारसे जिलाधीशके मनका समाधान कर लोगोंने आदरपूर्वक उसे विदा किया था ।
जिस मार्गसे वे गये थे उसी पहाड़ और जंगलके रास्तेसे उन्होंने गुजरातकी ओर विहार किया । जाते समय भीलोंने जैसा उपसर्ग किया था वैसा ही उपद्रव लौटते समय भी भीलोंके भयंकर स्थानोंको पार करते हुए उन्हें कुछ अंशमें हुआ । उनके साथ श्री मोहनलालजी और श्री चतुरये दो साधु थे। श्री चतुरलालजी पात्र आदि उपकरण लेकर आगे चल रहे थे । पीछे दोनों
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