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________________ [ ४३ ] इसकी देह छूट जायेगी ऐसा जानकर गुरुआनी ( बड़ी साध्वी ) ने उसे जीवनपर्यंत चारों प्रकारके आहारके त्यागका प्रत्याख्यान देकर सूत्रपाठ पढ़कर संथारा करवा दिया, क्योंकि इस सम्प्रदायमें कोई संथारेके बिना मर जाय तो उसका और उसको सँभालनेवालेका अपयश होता था । जैसे-जैसे रात बीतती गयी और प्रभात होने लगा वैसे-वैसे उस साध्वीको चेतना आने लगी और प्रातः होने पर पीनेके लिये पानी माँगा । गुरुआनी ( मुख्य साध्वी ) तो घबरायीं - चारों प्रकारके आहारका प्रत्याख्यान करवाया है और यह पानी माँगती है वह कैसे दिया जाय ? घबराती- घबराती गुरु आनी जहाँ श्री लल्लुजी ठहरे हुए थे वहाँ गयीं और सारी बात उन्हें बतायीं; उनके साधुओंसे जो समाचार आया था वह भी बताया। 'रातमें पूछने नहीं आ सकते और देह छूट जायेगी ऐसा लगनेसे प्रत्याख्यान करवा दिया है, अब क्या किया जाय ? सरोतेके बीच सुपारी जैसी स्थिति हो गयी है, कृपा कर कोई मार्ग बताइये ।' ऐसी विनती गुरुआनीने की । उन्हें शान्त कर वापस भेजा और स्वयं साध्वियोंके उपाश्रयमें पधारे। सबने विनय की । फिर श्री लल्लुजी उस बीमार साध्वीको देखकर बोले, “बाई, कुछ घबरानेका कारण नहीं है । जिस आहार- पानीकी आवश्यकता हो उसे खुशीसे लेना । " वह साध्वी बोली, “नहीं महाराज! मुझे प्रत्याख्यान करवाये हैं ऐसा कहते हैं, किन्तु पानी बिना नहीं चलेगा ऐसा मुझे लगता है । " श्री लल्लूजीने साध्वीजीको हिंमत देते हुए कहा, “देखो बाई, तुम्हारे माँगे बिना जो प्रत्याख्यान कराये गये हैं वे दुष्प्रत्याख्यान हैं, सुप्रत्याख्यान नहीं । यदि तुम्हें इन प्रत्याख्यानोंको तोड़ने से पाप लगेगा ऐसा लगता हों तो वह मैं अपने सिरपर लेता हूँ । तुम्हारी इच्छा हो वैसे शुद्ध आहार- पानीका उपयोग करनेमें अब आपत्ति नहीं है । " सब सुननेवालोंको बहुत आश्चर्य हुआ, किन्तु उस बीमार साध्वीने कहा, "मुझे पानी के अतिरिक्त तीनों प्रकारके आहारका त्याग करना है । मेरा मरण सुधारनेकी कृपा करें ।" 1 उस साध्वीकी समाधिमरणकी भावना और विनतीको देखकर श्री लल्लुजी नित्य उसके उपाश्रय जाते और उसको समझमें आ सके वैसे सत्पुरुषके वचनोंका विवेचन करते, उपदेश देते। दूसरे सुननेवालोंको उनके वचन बहुत कठिन लगते किन्तु महापुरुषके योगबलके सामने कोई कुछ बोल नहीं सकता था । इस प्रसंगका वर्णन स्वयं उन्होंने कई बार श्रोताओंको रसप्रद और वैराग्यवर्धक वाणी सुनाया है । उस साध्वीको वे उपदेश देते कि, “आत्मा भिन्न है, देह भिन्न है, तुम यह देह नहीं हो, तुम रोगरूप नहीं हो, तुम वृद्ध नहीं हो, युवती नहीं हो, बालक नहीं हो, स्त्री नहीं हो, साध्वी नहीं हो, गुरुआनी नहीं हो, शिष्या नहीं हो, तुम शुद्ध बुद्ध चैतन्यमय आत्मा हो । ये वस्त्र तुम्हारे नहीं हैं, पुस्तकें तुम्हारी नहीं है, उपकरण तुम्हारे नहीं हैं, पाट तुम्हारा नहीं है, पुत्री तुम्हारी नहीं है, गुरु आनी तुम्हारी नहीं है, यह शरीर भी तुम्हारा नहीं है, सबका त्याग कर दो । जहाँ-जहाँ यह जीव बँधा हुआ है, वहाँ-वहाँसे विचार, वैराग्य द्वारा छूटना है, तीनों लोकोंमें किसी भी पदार्थक प्रति आसक्ति, प्रीति करने योग्य नहीं है । निरन्तर उदासीनताकी उपासना करनी चाहिए । चलते, फिरते, बैठते, उठते, खाते, पीते, बोलते, सोते, जागते सर्व अवस्थाओंमें भान हो तब तक एक आत्माको स्थान-स्थान पर देखनेका पुरुषार्थ करना चाहिए। आत्माके बिना हिल नहीं सकते, चल नहीं सकते, बोल नहीं सकते, विचार नहीं हो सकता, सुख-दुःखका ज्ञान नहीं हो सकता; आत्माकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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