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________________ [ ४२] हुआ करे तो काया स्थिर होकर आत्मविचारको जागृत करती है। इसके लिए अल्प परिचय, अल्प परिग्रह, आहारका नियम, नीरस भाव ये सब कर्तव्य हैं...जैसे-जैसे लय विशेष होती है, वैसे-वैसे आत्मजागृति वर्धमान होती है और वैसे-वैसे कर्मका अभाव होता है...इन सबमें विचारजागृति मुख्यतः आवश्यक है। इस विचारजागृतिकी बहुत ही न्यूनता दिखायी देती है, जिससे दशा वर्धमान नहीं होती; बलपूर्बक करनेसे अधिक समय नहीं टिकती, और कृत्रिम होकर वह दशा चली जाती है...यदि विचारजागृति हो तो सहज ही अल्प प्रयत्न या बिना परिश्रमके वह दशा वर्धमान होती है। ...यह विचारजागृति किसे कहते हैं?...किसी भी शब्द, वाक्य, पद या काव्यपर विचारपूर्वक उसके विशेष अर्थको प्रगट करना, वह यहाँ तक कि-ज्यों-ज्यों उसका अर्थ विशेष होने पर मन निराश न होता हो पर प्रफुल्लित रहता हो, उमंग बढ़ती हो, आनन्द आता हो, लीनता होती हो, मन-वचन-काया मानो एकरसरूप होकर उसी विचारमें प्रवृत्ति करते हों, तब कैसा आनन्द आये! ऐसी जो एकरसरूप रसलीनता है, वह विचारजागृति प्रदान करती है। उसी विचारजागृतिकी बहुत ही न्यूनता है। अतः ज्ञानियोंने ऐसे पुरुषोंको सत्संगमें रहनेकी आज्ञा दी है, क्योंकि विचारशक्तिके अल्प बलके कारण सत्संग उन जीवोंको बलरूप हो जाता है। उस विचारशक्तिके लिए विद्याभ्यास, न्याय, तर्क, व्याकरण और शास्त्राभ्यासकी मुख्य आवश्यकता है कि जो विचारशक्तिको उपकारभूत होते हैं। ...जगतका कल्याण करने जैसी दशा नहीं है, वैसा दम्भ रखना नहीं है। जगतके प्रति अनुकम्पा रहती है। वह षट्पद-यथार्थ स्वरूप जब तक यथार्थ आत्मविचारसे समझमें नहीं आया, तब तक किसी भी मतका मण्डन या खण्डन नहीं किया जा सकता। उस छह पदका स्वरूप जैसेजैसे विचारज्ञानकी प्रधानता और चारित्रधर्मकी शुद्धता होती है, वैसे-वैसे अनुभवरूपमें विशेष प्रकारसे समझमें आता है।..." "...ऐसी लब्धि प्रगट करें कि सहजात्मस्वरूप बन जावें, आपका अवलम्बन लेकर हम भी भवपार हो सकें।" उस चातुर्मासमें श्री अंबालालभाईका करमाला जाना हुआ था और करमालामें श्वेताम्बर, स्थानकवासी और दिगम्बर तीनों ही जैन पक्षोंमें तीस वर्षसे चल रही अनबन और विरोधका समाधान श्री लल्लुजीकी सहायतासे, एकता बनी रहे ऐसे ढंगसे किया था। चातुर्मास पूर्ण करके श्री लल्लजी दक्षिणमें विचरते-विचरते घोरनदी नामक गाँवमें थोड़े समय रहे। उसी गाँवकी एक बाई और उसकी पुत्रीने स्थानकवासी सम्प्रदायमें दीक्षा ली थी। वे अन्य आर्याओंके (साध्वियोंके)साथ चातुर्मासमें वहाँ रही थीं; परंतु उस बाईको बीमारी अधिक होनेसे चातुर्मासके बाद भी वहाँ रुकना पड़ा। उनके संघाडाके साधुओंको उन आर्याओंने पत्र लिखकर बताया कि एक आर्या बीमार है उसे संथारा (मृत्युके पूर्वका प्रत्याख्यान) करवानेके लिए क्या किया जाय? उन साधुओंने यह सुन रखा था कि. श्री लल्लजी घोरनदी गये हुए हैं और खंभात संघाडाके प्रति उनके मनमें मान होनेसे उन्होंने आर्याओंको सूचित किया कि श्री लल्लजीकी आज्ञानुसार करें। आर्याओंको समाचार मिले उसी रात उस आर्याकी बीमारी बढ़ जानेसे वह बेसुध हो गयी। अब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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