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________________ [४१] श्री लल्लजी स्वामी आदिका विहार सुदूर करमालाकी ओर हुआ तो भी अंबालालभाईके साथ पत्रव्यवहार चालू था। भाईश्री अंबालालभाईने पत्र द्वारा विनती की कि आप क्षायकलब्धि (क्षायक सम्यक्त्व) प्राप्तकर शीघ्र ही आचार्यगुणसम्पन्न बनें और अवलम्बनरूप बनें। इसका उत्तर श्री लल्लजी स्वामीने ऐसे भावार्थमें दिया कि उन्हें असंग, अप्रतिबद्ध बननेके अतिरिक्त आचार्यादि बननेकी अब कोई इच्छा नहीं है। उस बोधपत्रके उत्तरमें श्री अंबालालभाईने श्री लल्लजी स्वामीको दो पत्र लिखे जो विचारणीय होनेसे उनके अत्यावश्यक उद्धरण नीचे दिये जाते हैं___".....असंग, अप्रतिबद्ध होनेकी इच्छाका पत्र सविस्तार पढ़कर मुझे परम आनन्द हुआ। पर आपसे प्रत्यक्ष मिलना आवश्यक है। वह होनेके बाद आपको जैसे योग्य लगे वैसे विचरण करें। आप असंग बनें इसमें मुझे प्रसन्नता है और मैं यही चाहता हूँ। ___ अब सामान्य मुमुक्षु भाइयों और बहिनोंको कोई आधार नहीं है। चातुर्मास पूरा होनेपर आपको इस ओर बुलाना यह मुझे भी ठीक लगता है। चारित्रधर्ममें सर्व मुमुक्षुभाई प्रमादके आधीन हो गये हैं, उन्हें जागृत रखनेवाला कोई नहीं है। बहिनोंको सम्प्रदायका आश्रय टूट जानेसे वे बेचारी बिलकुल निराधार हो गयी हैं । उनको तो एक भी आधार नहीं है। फिर भी हमें अब अपने विषयमें विचार करना है। संपर्कमें आये हुए व्यक्तियोंकी दया आती है, वैसे तो जगतमें अनन्त जीव हैं। यदि उनकी दया करेंगे और उन्हींके लिए देह बिता देंगे तो हमारा सार्थक कार्य रह जायेगा, अर्थात् होगा ही नहीं। अतः यदि हम अपने ही सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्रको शुद्ध करेंगे तभी अपना आत्महित होगा। फिर उस दशा द्वारा संसारका चाहे जो हो, उसके लिए हमें कुछ नहीं सोचना है। हमें तो सब जीवोंके प्रति अनुकम्पाबुद्धि रखनी है। आपकी वृत्तिको प्रोत्साहन मिले वैसा सत्संग आपके पास नहीं है। अथवा ईडरमें आपकी जो दशा थी वैसी दशा पहाड़ों या एकान्तमें रहनेसे हो सकेगी ऐसा आपको लगता है ?...प्रथम सत्संगमें वह दशा स्वाभाविक ही उत्पन्न हुई दिखायी देती थी कि आत्मविचारके अतिरिक्त अन्य बात एकदम उदासीन जैसी परभावरूप लगती थी। यह सहज ही होता था, और होता था वह परम सत्संगका फल था, सत्संगका अंश था। यदि अब हम गुफामें जाकर वैसी दशाको बलपूर्वक प्राप्त करें तो हो सकती है, किन्तु वह सत्संगके प्रत्यक्ष फल बिना अधिक समय तक टिक सके यह मुझे तो कठिन लगता है। मेरे कहनेका तात्पर्य यह नहीं है कि निवृत्तिमें जाना ही नहीं। जाना है तो थोड़े समय सत्संगमें रहनेकी आवश्यकता है, उसके बाद जाना। ऐसा किया जाय तो विशेष दशा प्राप्त होगी और वह दशा अधिक समय तक रह सकेगी। यह बात मैंने अपने स्वतः अनुभवके आधारपर अपनी समझके अनुसार लिखी है। आप तो गुणज्ञ हैं, आपको जैसा भी लगता हो वैसा आप बताइयेगा। आत्मदशा जागृत करनेका मुख्य साधन मेरे अनुभवके अनुसार मैं बताता हूँ : कोई भी पद, काव्य या वचन, चाहे जिसका उच्चारण हो रहा हो और मन उसीमें प्रेरित होकर विचार करता हो तो काया शांत रहती है; जिससे वचनसे उच्चारण और मनसे विचार यह काम एक साथ एकलयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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