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________________ [ ४६] रातमें पीतांबरदासभाईको विचार आया कि, “आज मैंने मुनियोंको कठोर वचन कहे फिर भी कोई कुछ बोला नहीं, उन्होंने तो उल्टी क्षमा धारण की। शास्त्रमें श्री नमिराजर्षिकी इन्द्रने प्रशंसा की है कि 'हे महायशस्वी! बड़ा आश्चर्य है कि आपने क्रोधको जीता, आपने अहंकारको पराजित किया!' ये शास्त्रवचन आज मैंने प्रत्यक्ष सत्य रूपमें देखे । क्रोधको जीतनेवाले क्षमामूर्ति ये ही हैं। मैं क्रोधसे धधक उठा और कुवचनोंकी वर्षा की किन्तु इनका रोम भी नहीं फड़का, अतः मुझे प्रातः उनके पास जाकर क्षमा माँगनी चाहिए।" ऐसा सोचकर प्रातः मुनियोंके पास आये और भक्तिपूर्वक नमस्कार कर उनकी स्तुति की और क्षमा याचना की। श्री लल्लजी आदि पालीताणा होकर जूनागढ पधारे तब कुछ मुमुक्षु गिरनार पर्वतकी पाँचवीं टोंक तक साथमें थे। अत्यन्त विकट मार्गमें मुमुक्षुओंको साहस बँधाते हुए श्री लल्लुजी सबसे आगे चल रहे थे। ऊपर एक गुफा देखने गये। उसके बारेमें ऐसी बात सुननेमें आई थी कि यहाँ एक योगी रहते थे, पर अब कोई इस गुफामें रात नहीं बिता सकता। एक साधुको लोगोंने मना किया फिर भी वे रात्रिमें वहाँ रहे, पर घबराकर सुबह बीमार हो गये और उनकी मृत्यु हो गई। यह बात सुनकर श्री लल्लुजीको विचार आया कि हमें यहाँ रहना चाहिए। अन्य मुमुक्षु मना करने लगे, फिर भी वे श्री मोहनलालजी सहित उस गुफामें रहे और अन्य मुमुक्षु पर्वत उतरकर जूनागढ गये। रातमें दोनों मुनि भक्ति करने लगे। उस समय गुफाके ऊपर मानो शिलाएँ लुढ़क रहीं हो ऐसी आवाज होने लगी। दोनोंने उच्च स्वरसे भक्तिमें चित्त लगाया। थोड़ी देर बाद वहाँ बिजली कड़कने जैसी भयंकर आवाज होने लगी, किन्तु मुनिवरोंने उस ओर ध्यान नहीं दिया। मात्र इष्ट सद्गुरुकी भक्ति उल्लासभावसे करते रहे । थोड़ी देरमें शान्ति फैल गयी। फिर श्री मोहनलालजी प्रश्न पूछते और श्री लल्लुजी उसका उत्तर देते, यों चर्चामें कुछ समय बिताया और पिछली रातका समय श्री लल्लुजीने ध्यानमें बिताया, तब श्री मोहनलालजी स्मरणमंत्रकी माला फेरते रहे। प्रातः गुफाके बाहर आये और जाँच की परंतु आवाज होनेका कोई कारण समझमें नहीं आया। दूसरी और तीसरी रात भी उन्होंने इसी प्रकार वहीं बितायी, किन्तु पहली रात जैसा उत्पात फिर नहीं हुआ। श्री लल्लजी जूनागढसे विहार कर धंधुका पधारे और वहीं सं.१९६०का चातुर्मास भी किया। खंभातसे श्री अंबालालभाई तथा वीरमगाम, अहमदाबाद और वटामणकी ओरके मुमुक्षुजन सन्तसमागमके लिए आये और पर्युषणपर्वके निमित्तसे लगभग पंद्रह दिन वहाँ बिताये। इस चातुर्मासमें कुछ भाई-बहनोंको ऐसा भक्तिका रंग लगा था कि वह मृत्युपर्यंत टिका रहा। एक बार धंधुकाके स्थानकवासी भावसारोंके विचारवान अग्रणी श्री लल्लजी स्वामीके पास आये और पूछा कि, “आप पर हमें विश्वास है इसलिए पूछते हैं कि प्रतिमाको मानना चाहिए या नहीं? शास्त्रमें प्रतिमापूजन आदिका विधान है या नहीं? हमें कुछ पता नहीं है, और मंदिरमें भी हम नहीं जाते। आप जैसा कहेंगे वैसा मानेंगे।" श्री लल्लजी स्वामीने उन्हें बताया कि, “शास्त्रमें प्रतिमासंबंधी उल्लेख है। प्रतिमाका अवलम्बन हितकारी है। मंदिरमें नहीं जाना ऐसे आग्रहको छोड़ देना चाहिए। हम भी दर्शन करने, भक्ति करने मंदिरमें जाते हैं। इस बारेमें सत्संग-समागममें बहुत सुननेकी आवश्यकता है।" धंधुकाके तीस भावसार कुटुम्ब स्थानकवासी मान्यताको बदलकर मंदिरमार्गी मान्यतावाले बन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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