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उपदेशसंग्रह-४ है। ऐसे पुरुष बहुत कालके पश्चात् हुए। इनकी दशा बहुत ऊँची थी। इस समयमें इनका होना ही एक चमत्कार है। महा पुण्यसे इनका परोक्ष योग हुआ है, अतः उन्हें गुरु मानकर स्थापित करें, दृढ़ श्रद्धा करें।
किसी भी प्रकारकी सुख, बड़ाई, पद आदिकी इच्छा न करें। 'मुझे ऐसा हो तो अच्छा, या मैं ऐसा करूँ' आदि संकल्प-विकल्पमें मतिको न जाने दें। इससे बंधन होता है। हमें तो मुक्त होना है। जो होना होगा सो होगा। उसमेंसे कोई छुड़ानेवाला नहीं है । बुढ़ापा भी आयेगा। अभी तो आनंदसे उठा-बैठा जाता है। फिर तो जीवन कठिन हो जायेगा। प्राण निकाल डालनेका मन होगा। फिर भी जो काल निर्मित है उसे तो पूरा करना ही पड़ेगा। जो दुःख आये उसे समतासे सहन करें, तभी कर्म निर्जरित होंगे।
'सुख दुःख मनमां न आणीओ, घट साथे रे घडियां ।' सीता जैसी सती पर भी दुःख पड़नेमें क्या कमी रही थी? फिर भी उसने सहन किया, समभाव और श्रद्धा रखी तो देवलोकमें प्रतीन्द्रका पद मिला और मोक्ष जायेगी। अतः मनमें कुछ न लायें । मनको धर्ममें लगायें। ढीला न छोड़े।
ता. २८-४-३१ बोध-विचार-प्रतीति-समकित-चारित्र-कर्मनिर्जरा-मोक्ष-इस श्रेणीमें काम करना है। आत्मज्ञानका भव्य भवन बनाना है। वह कर्मक्षयके बिना कैसे बनेगा? उसके लिये विषय-कषायको जीतें। एकाग्रतासे भक्तिपूर्वक आप्तपुरुषका बोध श्रवण कर, मनन कर, दृढ़ आचरण करें। उपयोग स्थिर करें। दूधका दही जमना चाहिये। संकल्प-विकल्प मिटकर स्थिरता आनी चाहिये।
'समयं गोयम मा पमाए' क्षण क्षण करते आयुष्य बीत रहा है, इसमें अमूल्य समयमात्र भी वृथा जाने देनेसे भव हार जाने जैसा है। अतः उपयोग दृढ़ करें। मंत्रका स्मरण सतत करें।
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ता. ३१-५-३१ अब पकड़ कर लेनी है। दृढ़ता, निश्चय, श्रद्धा, विश्वास ऐसा करें कि किसी भी प्रसंगमें उसका विस्मरण न हो और निःशंकता आवे, जिससे मृत्युके समय निर्भय रहा जायेगा।
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ता.७९-३२ प्रत्येक प्रकारका मोह त्याग दें। अन्यथा बंध होगा और वह अनंतकाल तक संसारमें भटकायेगा । प्रतिदिन नियमित धर्मवृद्धि करनेमें समय बितायें। उसके सिवाय जो समय बीत रहा है या बीतेगा वह सब वृथा है। अब तो जन्म-मरणसे छूटना है। उसीके लिये यह भव हाथमें आया है। काल क्षण-क्षण बीत रहा है वह वापस नहीं आयेगा। प्रत्येक क्षण अमूल्य है। उसे अंतरंग चिंतन, मनन तथा सद्गुरुस्मरणमें बितायें।।
यह आत्मा अकेला आया है, अकेला जायेगा। अपने बंधन अकेला भोगकर दुःख पायेगा। कोई बचा नहीं सकेगा।
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