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उपदेशामृत
ता. ३०-१२-३०
जीवको भूख लगी ही नहीं है । योग्यता चाहिये । सत्पुरुषका योग, जिन धर्म आदि दुर्लभ है । सत्, शील, टेक, ब्रह्मचर्य कुछ भी लोगोंको दिखानेके लिये नहीं करना है । पुरुषार्थबल सतत करें । प्रतिदिन कमसे कम एक घंटा आत्मार्थमें बीते तभी कुछ प्राप्त होगा । 'यह तो ठीक है, नित्य करते ही है न ? इसमें क्या है ?" यों कहकर टाले नहीं ।
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जब तक मुमुक्षुता प्रकटी नहीं, भूख लगी नहीं, 'तू ही तू ही' की रट नहीं लगी तब तक सब ऊपर दिखावेका है। शिष्यको दृढ़ मोक्षेच्छा न हो तब तक गुरु क्या कर सकते हैं ?
यह जीव अनंतकालसे भटका है । जन्म, मरण, जरा, रोग, भोगविलास, असाता, प्रपंच आदि करता हुआ अनेक संकल्प - विकल्प द्वारा कर्मसे बंधा हुआ है। इसमें बहुत दुःख उठाया है । पर अब ऐसी अद्भुत शरण प्राप्त हुई है मानो किसी दरिद्रीको हीरेकी खान मिल गई हो। ऐसा योग त्रिकालमें दुर्लभ है तो इस दुषमकालमें तो उसका अत्यंत माहात्म्य है ।
रागद्वेष, संकल्पविकल्पको रोकें । मनको भक्तिभावमें, कंठस्थ किये हुएके पुनरावर्तनमें लगायें । पाठशालाकी पढ़ाई सब लौकिक है । यह ज्ञान शाश्वत नहीं है । ऐसी शिक्षा तो अनेक जन्मोंमें ली और भूल गया । अतः इसमें कुछ विशेषता नहीं है । वास्तवमें तो यह ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, उसका लौकिक मूल्य नहीं कराना है, क्योंकि यह आत्महितके लिये है।
योग्यता प्राप्तिके लिये दृढ़ प्रतिज्ञा या सत् अनिवार्य है । आत्मामें सत्, टेक चाहिये कि ऐसा ही व्यवहार करना है, अन्य कदापि नहीं । शीलका दृढ़तासे पालन करें । परमकृपालुदेवने कहा है कि अल्प आहार करना, उपवास करना, एकांतर करना, चाहे विष खाकर मर जाना, पर ब्रह्मचर्यका भंग नहीं करना, क्योंकि शील ही सबका आधार है ।
ता. ३१-१२-३०
जीवका क्या कर्तव्य है ? आज्ञापालन, श्रद्धा, समकित । इतना जन्म तो इसीके लिये कायाको गलाना है ।
उपयोगमें रहें। इसमें बहुत समाया हुआ है !
ता. ४-३-३१
समझ लो कि आज गला दबाकर मर गये । अब किसी विषयमें वृत्तिको न रोककर वैराग्यभावसे प्रवृत्ति करनी चाहिये । सब क्षणिक हैं, क्षणभंगुर हैं, इसमें प्रीति, हर्षशोक किसलिये ? इन सबसे छूटनेका यह अवसर आया है। अतः उद्यममें जुट जाना चाहिये ।
ता. १-३-३१
बीस दोहें, आत्मसिद्धि, क्षमापना आदिका अत्यंत महत्त्व है ! यह तो आत्मस्वरूपप्राप्त, इस कलियुगमें दुर्लभ, ऐसे पुरुषकी वाणी है। इससे यथार्थ समझने पर आत्मस्वभाव प्रकट होता है । देवचंद्रजीके स्तवन भी एक आत्मज्ञकी वाणी है। फिर भी परमकृपालुदेवकी वाणी इससे भी उच्च
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