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________________ ४०० उपदेशामृत ता. २३-१०-३२ करना यह है कि सूक्ष्म भी मोह, ममत्व अपनेमें हो तो उस पर विचार कर उसे छोड़ें। एक ज्ञानीकी अखंड शरण लेकर उसीकी आराधना करें। चाहे जैसे प्रतिकूल संजोगों में भी छोड़े नहीं । बहुत सावधान रहें । किसीका प्रतिबंध न करें। यह अच्छा, यह बुरा, ऐसा न करें। किसीके साथ माया, प्रीति, पहचान, मित्रता आदि करेंगे तो बंध होगा। जिससे अनेक जन्मोंमें भटककर मिला हुआ योग व्यर्थ जायेगा । अतः किसीका प्रतिबंध न कर असंगता प्राप्त करें । 'वनसे भटकी कोयल' जैसा है। एकके बाद एक काल पूरा कर चले जानेवाले हैं । कोई फिर मिलेगा या पहचानेगा भी नहीं। तो फिर व्यर्थ प्रतिबंधरूपी अनर्थदंड करनेसे कितना अहित होगा ! एक सत्पुरुषका ही सतत ध्यान करें। एक सती स्त्री जैसे एक पतिका ही वरण करती है और उसीका स्मरण करती है, वैसे ही पूरी दुनियाको पर मानकर एक सत्पुरुषमें ही वृत्तिको पिरोयें । ✰✰ ता. २४-१०-३२ मुमुक्षु - जब सत्पुरुषके समीप हो तब जीवको सद्बुद्धि, विचार स्फुरित होते हैं । पर उसके बाद थोड़ी ही देर में वापस बहिर्बुद्धि क्यों हो जाती है ? प्रभुश्री - अनादिका अभ्यास है इसलिये वृत्ति उस ओर दौड़ जाती है । परवस्तु पर - बाह्य दीखती अनेक वस्तुओं पर जो प्रीतिभाव होता है, वैसा सत्पुरुषके प्रति यथार्थमें नहीं हुआ है। मनसे मान लेता है कि मैं समझ गया, देह आदि मेरे नहीं है, मैं आत्मा हूँ, देहादिसे भिन्न हूँ; पर वह उसकी मान्यता ही है- अंतरंगसे वैसी परिणति नहीं हुई है, वैसी दशा आयी नहीं है, क्योंकि गहरे उतरकर विचार नहीं किया है। इस पर्यायको माननेका अनादिका अभ्यास है, उसको छोड़नेके लिये निरंतर वैसा अभ्यास चाहिये । सत्पुरुषका बोध बहुत सुनकर गहरा उतारना चाहिये । इसके लिये सत्पुरुष पर अपूर्व प्रीतिभाव प्रकट होना चाहिये । जिस पर प्रेम होता है उसकी तो बार बार स्मृति आती है । ता. २७-१०-३२ मिथ्यात्वी जीव कुटुंब आदिमें आसक्त होकर उसमें सुख मानता है और उसका वियोग होने पर सिर फोड़ता है । स्त्री, पुत्र आदि हों, उनमेंसे कोई बीमार पड़े या मर जाय, धन चला जाय या ऋण हो जाय, शरीरमें रोग हो, वृद्धावस्था हो तब उसकी चिंता ही चिंतामें अनेक प्रकारसे बंधन करता है। उसे श्रद्धा नहीं है कि यह सब पूर्व कर्मसे मिला है । क्या होगा ? कैसे होगा? ऐसी चिंता मिथ्यात्वी करता है। समकिती जानता है कि पूर्वकर्मके अनुसार लिखे हुए लेख भोगने पड़ेंगे और वैसा ही होता है । वह प्रयत्न करता है, व्यवहारमें प्रवृत्ति करता है परंतु उससे अलग रहकर - ज्यों धात्री बालकको खिलाती है-उसमें लीन नहीं होता । लीन तो आत्मामें रहता है । Jain Education International जो श्रद्धा रखता है कि सब हो जायेगा, उसे किसी प्रकारकी चिंता नहीं रहती । अतः मिथ्यात्वीकी भाँति किसी प्रकारकी चिंता न करें । सब प्रभुको समर्पण कर दें। संयोगके अनुसार सब होता रहता है । भव-भवमें ऐसे ही काल व्यतीत हुआ है और ऐसे ही होता आ रहा है। उससे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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