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________________ उपदेशसंग्रह-३ ३८९ दर्शनमय, ज्ञानीने कहा वैसा। वह मुझे मान्य है। 'सद्धा परम दुल्लहा'-"वीतरागका कहा हुआ परमशांत रसमय धर्म पूर्ण सत्य है।" ___ उपयोग ही धर्म है। बात कुछ आश्चर्यजनक है! बात ज्ञानीकी कही हुई है। मीठी कुईका पानी है। "सबसे ऊँची बात, दो नैननके बीचमें। चाबी गुरुके हाथ, भेद न पावे वेदमें ।।" किये बिना नहीं होगा। आखिर छोड़ना पड़ेगा। बात आश्चर्यजनक है! “पैर रखते पाप है, दृष्टि डालते विष है और सिर पर मौत सवार है, यह विचार कर आजके दिनमें प्रवेश कर।" “जगतको आत्मारूप देखा जाय।" यह आश्चर्यजनक वचन पकड़में नहीं आता। ‘पावे नहीं गुरुगम बिना।' गुरुगम चाहिये । भेदी मिलना चाहिये ही। बड़े जहाजके साथ साँकल जोड़ दें तो छोटी नौकायें भी साथ साथ चली जाती हैं। ऐसा मार्ग है। खूबी है! बात ऐसी वैसी नहीं है। इस अवसर पर वस्तु लेने योग्य है। देर कितनी है? आपकी देरीसे देर है। श्रवण किये बिना किसीका काम नहीं होगा। श्रवण करेगा तब पता चलेगा। "एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसण लक्खणो; सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा." महापुरुष कह गये हैं सब। पर श्रद्धा, प्रतीति नहीं है। पढ़ा पर गुना नहीं । जो समझा उसका काम होगा। समझनेसे ही छुटकारा है। "सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप; समज्या वण उपकार शो? समज्ये जिनस्वरूप." हमारे धन्य भाग्य हैं कि ऐसा योग मिला । मैत्रीभाव, प्रमोदभाव, करुणाभाव, माध्यस्थभाव इन चारोंको हमें नहीं छोड़ना चाहिये । इस भावनासे काम हो जाता है। ता. ३१-३-३६ मूलमार्ग वीतराग मार्ग है। कर्म है, आत्मा है। दोनोंको ज्ञानी जानते हैं। ज्ञानीने आत्माको यथातथ्य देखा है, ऐसा कहना चाहिये । बाल-बच्चे, पैसा आदि सब पुद्गल, कर्म हैं। कर्म तो छूटते हैं। अनंतकालसे छूटते आ रहे हैं। किसीके भी छूटे बिना रहे हैं? पर आत्माकी पहचान नहीं हुई है। यह सब व्यवहार कर्म संयोग-संबंधके कारण करना पड़ता है। आत्माकी भावना तो किसी ज्ञानीने भायी. उसका परिचय करना है। ज्ञानी ही उसका परिचय जानते हैं। नासिककी क्षेत्र-स्पर्शना होनेसे वहाँ जाना पड़ा। कर्म पुद्गल एक न एक दिन तो छोड़ने ही हैं, छूटेंगे । अनंतभवसे छोड़ता आया है। फिर भी आत्मा तो वैसा ही है। उसे कुछ हुआ है? मनुष्यभव दुर्लभ है। उसमें एक सत्संग और सत्पुरुषका बोध, इन दोनोंकी आवश्यकता है। फिर कोई चिंता नहीं । 'फिकरके फाके भरे उसका नाम फकीर ।' आत्मा क्या है? आत्मा कैसा है? अब कुछ चिंता + मेरा एक शाश्वत, ज्ञानदर्शन लक्षण स्वरूप आत्मा है, शेष सर्व संयोगलक्षणरूप बाह्यभाव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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