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________________ ३८८ उपदेशामृत है। भाव आने पर कार्य करने लगता है। जप, तप, सब इसमें समा जाते हैं। कर्मक्षय होनेसे सिद्धि प्राप्त होती है। ऐसी वस्तु सत्संगमें है। सत्संगमें कुछ अपूर्व बात होती है! भेड़ियाधसान, रूढ़िमार्गसे धर्म कहते हैं, वह धर्म नहीं है। सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र यही आत्माका धर्म है। इस आत्माकी बात सत्संगमें होती है। बाजारमें सब वस्तुएँ भरी होती हैं। वहाँ स्वयंको जिसकी आवश्यकता हो, वह वस्तु लेते हैं। इसी प्रकार इस मनुष्यभवको प्राप्त कर तेरा क्या है? यह नहीं जाना है। पहले उसे जानकर फिर उसे प्राप्त करना चाहिये। 'समयं गोयम मा पमाए' क्षण क्षण आयुष्य घट रहा है। यहाँ कौन बैठा रहेगा? सबको जाना है। समझदार लोग हंसकी भाँति दूध दूध ग्रहण करते हैं, पानीको छोड़ देते हैं । बनिया है, ब्राह्मण है, छोटा है, बड़ा है ऐसा न देखें। बात सबकी सुनें, पर जो आत्महितकारी हो उसे ग्रहण करें। . 'भरत चेत, काल झपाटा देत ।' इसका फल आदर्शभवनमें केवलज्ञान ! किसने काम किया? भावने "भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान; भावे भावना भाविये, भावे केवळज्ञान." रुपया-पैसा किसके काम आते हैं? भाव और परिणाम ये दोनों तुम्हारे पास हैं । आशा, तृष्णा, वासना तो माया है। छोड़कर आया है, छोड़कर जाना है। साढ़े तीन हाथ भूमिमें जला डालेंगे। तब क्या करना चाहिये? एक सत्संग । इसमें आत्माकी बात है। सबको सँभाला, पर जिसको सँभालना चाहिये वह रह गया-क्या यह ठीक है ? सत्संगसे ही उसे सँभाला जा सकेगा। उसमें समय लगायें। वहाँ सहज ही पापका संक्रमण होकर पुण्य हो जाता है, वृत्ति रुकती है। वृत्तिको रोकना ही है। यदि जीव भावना करेगा तो उसका मीठा फल मिलेगा। जीवको भान नहीं है। ऐसा अवसर चुकने जैसा नहीं है, सावचेत होने जैसा है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये आत्मा नहीं है। पाँच इन्द्रियाँ हमारी नहीं हैं। ये तो बंधन करानेवाले हैं। अतः इनके त्यागका उपदेश दिया है। विषय-कषाय छोड़ने पड़ेंगे। 'हाँ, यह तो मैं जानता हूँ, मैंने सुना है,' ऐसा नहीं करना चाहिये। __सत्संग-समागममें जो वाणी सुनते हैं उससे हित होता है। सत्संगमें आकर कुछ ले जाना चाहिये । क्या? कर्तव्य क्या है? भक्ति। भक्ति जैसा कोई साधन नहीं है। बहुत बड़ी श्रेष्ठ वस्तु है। मुमुक्षु-भक्ति भी अनेक करते हैं। तो भक्ति कैसी करनी चाहिये? प्रभुश्री-हृदयमें टेक रखें। भक्तिके बीस दोहे एकांतमें बैठकर पूरे दिनमें एक बार भी बोले । यह मंत्र है, जप है। जैसे साँपका विष मंत्रसे उतरता है, वैसे ही भक्तिसे जीवके कर्मका विष उतरता है। "हे प्रभु! हे प्रभु! शुं कहुं? दीनानाथ दयाळ ।" लघुत्व, गरीबी, गुरुवचन ये कहाँसे मिलेंगे! आत्माका नाश नहीं है। आत्मा है। कैसा है? ज्ञानीने देखा है वैसा। कैसा देखा है? ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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