SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 482
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-३ ३८७ भोग भोगना, विषयोंमें आसक्त होना यह विष है, कालकूट विष है। 'मैंने खाया, मैंने पिया, मैंने भोग भोगे!'-क्या यह सच है? यह तो बंधन है, यह सब त्याज्य है। जो मेरा है वही (आत्मस्वरूप) मेरा है। अन्य कुछ भी मेरा नहीं। विषका प्याला पी लें, कटार मारकर मर जायें, पर व्रतका भंग न करे। "नीरखीने नवयौवना, लेश न विषय निदान; गणे काष्ठनी पूतळी, ते भगवान समान." नारीको लकड़ीकी पुतलीके समान मानें। सब पुतले ही हैं। आत्मा अलग है। एक विषयको जीतनेसे सारा संसार जीता। मरनेको तत्पर हो जायें। 'एक मरजिया सौको भारी।' ज्ञान आत्मा है। ध्यान आत्मा है। विषयसे ज्ञान और ध्यानका नाश होता है। जैसे खेतकी रक्षा एक बाडसे होती है, वैसे इस ब्रह्मचर्यरूपी कल्पवृक्षकी रक्षा नौ महाबाडसे होती है। सभी बाड सँभालें । जो मन, वचन, कायासे ब्रह्मचर्यरूपी कल्पवृक्षका सेवन करता है, उसका संसार शीघ्र नष्ट होता है। पात्र बननेके लिये बुद्धिमान पुरुष निरंतर ब्रह्मचर्यका सेवन करते हैं। ता. २९-२-३६ पत्रांक ५६९ का वाचन “सर्व क्लेशसे और सर्व दुःखसे मुक्त होनेका उपाय एक आत्मज्ञान है। विचारके बिना आत्मज्ञान नहीं होता और असत्संग तथा असतासंगसे जीवका विचारबल प्रवृत्त नहीं होता, इसमें किंचित् मात्र संशय नहीं है।" सारी संभाल ली है, एक आत्माको नहीं जाना है। अब इस जीवको मनुष्यभव प्राप्त कर दुर्लभसे दुर्लभ योग मिला है। उसमें कर्तव्य एक यह है, आत्मज्ञान । वाकई यह करनेका है। वासना, रुपया-पैसा, मायाकी सामग्री प्राप्त की हो वह इस जीवके आत्महितमें काम नहीं आती। वह मूर्छा है। उससे बंधन होता है। मनुष्यभव प्राप्त कर चेत जाना है। क्या? आत्मभावना । अन्य भावना हुई, पर यह भावना नहीं हुई। 'पक्षियोंका मेला', 'वन वनकी लकड़ी'। प्राण लिये या ले लेगा। मेहमान हो। सब यहीं पड़ा रहेगा। सुई तक भी साथ नहीं जायेगी। साथ जानेवाला क्या है? इसका बुद्धिमान पुरुषोंको विचार करना चाहिये। 'समयं गोयम मा पमाए' यह वीतरागका वचन है। यह मनुष्यभवका योग दुर्लभमें दुर्लभ है। यह अवसर मिला है। इसमें सबसे बड़ी बात, सबसे बलवान हमें तो सत्संग लगता है। जिसको जैसा संग वैसा ही रंग लगेगा। सत्संगकी आवश्यकता है। बोधकी कमी है। मनुष्यभव पाकर क्या करना है? ___ 'सवणे नाणे विन्नाणे, पच्चक्खाणे संयमे । श्रवण सत्संगमें मिलता है। सत्संगसे कर्म क्षय होकर मोक्ष होता है। 'हुं कोण छु ? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं?" सिर मुंडन कराया, साधु बना, जप तप किये, उसके फल मिले । क्रिया कुछ बाँझ नहीं होती। मनुष्यभव व्यर्थ जा रहा है, पशुवत् बीत रहा है। सुननेसे विज्ञानता आती है, फिर भावना होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy