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________________ * * ३८६ उपदेशामृत अब तेरे हाथमें है, तेरी देरमें देर है । चेत, चेत, भरत, चेत । बोध श्रवण नहीं किया-किया हो तो भी हुँबीमें कंकर! बाह्यको मान बैठा है। यह तो अमुक भाई बैठे हैं, यह भ्रान्ति है। यह नहीं देखना है। परदा हटा नहीं है, तब क्या देखेंगे? परदा हटे तब अन्य दिखायी देता है। इन सबमें आत्मा नहीं है क्या? क्या आत्मा ही नहीं है? है, अवश्य है। तब किसे मानना है? अब किसको गिनना है ? किसको पहचानना है? अब किसकी पंचायत है? खाना, पीना, बैठना, उठना, यह तो आत्मा नहीं है। मार्ग क्या है? त्याग । नंगी तलवार, स्त्री-बच्चे, धन, हाथ-पाँव-सबका त्याग । तब बचा क्या? सब छोड़ने पर शेष क्या रहा? जो छोड़ा न जा सके ऐसा अपना स्वरूप, वह समझमें नहीं आया है। ता.८-२-३६ आत्माको पहचानना है। आत्माको देखनेकी दृष्टि बनानी है। ज्ञानी जगह जगह आत्मा देखते हैं । ज्ञानीके पास ही दिव्य चक्षु हैं। अन्य सब संसारी जीव चर्मचक्षुसे देखते हैं, जिससे कर्मबंध कर रहे हैं। इसीलिये ज्ञानीको सब सुलटा है। ज्ञानीकी सभी प्रवृत्ति सम्यक् होती है। ज्ञानी चाहे जैसे प्रवृत्ति करें फिर भी बँधते नहीं है। उनका प्रत्येक व्यवहार सीधा ही होता है। अज्ञानीका सब व्यवहार उलटा ही है। तब आत्माको कैसे देखें? इसके लिये क्या करें? सत्संगमें बोध सुना, पर विचार नहीं किया। बातोंसे बड़े नहीं बनते । करना पड़ेगा। आपकी देरीसे ही देर है। तो अब क्या करना है? इतने लोग यहाँ बैठे हैं, पर किसीने एकांतमें बैठकर कुछ निश्चय किया है? श्रद्धा की है? श्रद्धावाला धनवान है। उसका काम होगा। एक श्रद्धा दृढ़ हो जाय तो सब सीधा हो जाय । आत्माके स्वरूपकी श्रद्धा हो गयी हो तो उसका सभी सुलटा हो जाता है। ता. २०-२-३६ छोटे, बड़े सब आत्मा हैं। स्थान स्थान पर एक आत्मा ही देखें । अंजन लगना चाहिये । पर सुनता कौन है ? कौन ध्यान देता है ? किसे कहें? ता. २८-२-३६ सत् और शील मुख्य हैं। सत् अर्थात् आत्मा, शील अर्थात् ब्रह्मचर्य । 'हमने व्रत लिया है, ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं।' क्या यह सच है? ब्रह्मचर्यव्रतवाले तो जगतमें बहुत फिरते हैं। क्या उन्हें यथार्थ ब्रह्मचर्य व्रत है? जिसका महाभाग्य होता है वही ज्ञानीसे इस व्रतको प्राप्त करता है। ज्ञानीके वचनके अनुसार मान्यता करे कि यह मैं नहीं, मैं तो इन सबको जानने-देखनेवाला आत्मा हूँ-सद्गुरुने यथार्थ जाना है वैसा आत्मा मैं हूँ। उस आत्माके लिये व्रतका पालन करता हूँ। जगतमें अच्छा, बड़ा कहलाने या पूजा-सत्कार प्राप्त करनेके लिये कुछ व्रत-पालन नहीं करना है। अपने आत्माके हितके लिये, आत्मार्थके लिये करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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