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________________ ३८५ उपदेशसंग्रह-३ "समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवारशुं गाढी; मिथ्यामति अपराधण जाणी, घरथी बाहिर काढी, हो मल्लि जिन०" __ ता.६-२-३६ इन सब जीवोंके पास क्या है ? 'भाव' है या नहीं? किसीके पास भाव न हो ऐसा है क्या? अब क्या करें? यह बात ऐसी वैसी नहीं हैं। चमत्कार है। एक वचनमें मोक्ष होता है। छोटे, बड़े कोई भी कर सकें ऐसा क्या है? भाव । भावसे ही बुरा होता है, भावसे ही भला होता है। जन्म, जरा, मरण हो रहे हैं वे भी भावसे ही हो रहे हैं। तो अब क्या करें? "भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान; भावे भावना भाविये, भावे केवळज्ञान." यह सबका सार है। जप, तप, क्रिया, कमाई, संयम, मानना, न मानना, यह सब भावमें आ गया। यह जीव अनादिसे भ्रमण कर रहा है। उस पर दया लाकर कृपालुदेवने बुलाकर लिख दिया, 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे।' इतना ही कथन पर्याप्त है। परको अपना माना है तभी दुःख खड़ा हुआ है। 'मेरा सिर दुःख रहा है, बुखार आया है, पेट दुःख रहा है'-यों अंदर तन्मय होकर मानने जाता है! यह 'तेरा सिर' और 'तेरी पीड़ा' ये तेरे हैं क्या? ये तो कर्म हैं। वे बाँधे हुए आये हैं और जा रहे हैं। उनका ज्ञाता-द्रष्टा उनसे भिन्न तू आत्मा है। वह आत्मा तेरा है। उस पर भाव, यही स्थिर शांत होनेका स्थान है। आत्मभाव होने पर चिंता, आकुलता, सब मिट जाती है। कहिये, ऐसा आत्मभाव अब कौन छोड़ेगा? पूरे गाँवका बेटा हो वह आत्मभाव छोड़ेगा, मैं तो नहीं छोडूंगा। इतना ही करना है। ऐसा न करना हो तो भटकता रह संसारमें। “सत्पुरुषके एक एक वाक्यमें, एक एक शब्दमें अनंत आगम समाहित हैं, यह कैसे है?" पता नहीं होनेसे भोला भटक रहा है। मेरा पुत्र, मेरा धन, मेरा घर-'मेरा मेरा' करो और भटको। बाह्य दृष्टिसे देख रहे हो। ‘कर विचार तो पाम' विचार नहीं किया है। इसका परिणाम क्या होगा? सुख-दुःख, रुपयापैसा, पुत्र-पुत्रियाँ, 'मेरा-तेरा' कुछ भी नहीं रहता। सब राख है। गुत्थी सुलझी नहीं है। छोड़ना पड़ेगा। साथमें लिया तो बाधक हुआ। न ले तो होगा क्या? इधर देखें, उधर देखें । जहाँ देखे वहाँ 'तू ही, तू ही'-एक आत्मा ही देखें। यह भी आत्मा, यह भी आत्मा, यों आत्मा देखें तो काम बन जाय। उसकी जगह यह तो बनिया है, यह तो पटेल है, यह अच्छा है, यह बुरा है, यह छोटा है, यह बड़ा है यों देखा तो फोड़ सिर । आत्मा नहीं देखा। 'जे जाणुं ते नवि जाणुं, नवि जाण्युं ते जाणुं । यह सब मर्मकी बात है। गुत्थी सुलझ जाय तो सुलटा हो जाय। पीछे लौटना पड़ेगा, छोड़ना पड़ेगा, करना पड़ेगा। आत्मभावना भाने पर परिणाम दूसरा आये तो कहना। शक्कर खाये तो अफीमका फल नहीं मिलेगा, शक्करका ही फल मिलेगा। Jain Education anal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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