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उपदेशामृत
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जो यह दिखायी देता है, वैसा आत्मा नहीं है । खाना-पीना, बोलना - चालना सब मिथ्या है । यह मेरा नहीं है, यह मैं नहीं हूँ । ज्ञानीने जाना है वैसा आत्मा मैं हूँ, वह आत्मस्वरूप मेरा है । अन्य सब क्रियाको देखनेवाला मैं रहूँ, उसमें मिल न जाऊँ, मुफ्तमें देखता रहूँ तो कर्मबंध न होगा ।
आत्माको देखनेका लक्ष्य हो, आत्माकी स्मृतिका लक्ष्य हो, आत्मभावनाका पुरुषार्थ हो तो आस्रवमें भी संवर होता है। विषका अमृत होता है, कोटि कर्म क्षय होते हैं । अतः निरंतर पुरुषार्थ कर्तव्य है ।
पौष वदी ० )), १९५२, ता.२४-१-३६
मुमुक्षु - साहब, कोई नया आता है, कोई पाँच वर्षसे आता है, कोई पंद्रह वर्षसे सत्संग करता है, इन सबको आप कहते हैं कि योग्यता नहीं है, योग्यता लायें, तो इसका क्या मतलब ?
प्रभुश्री- - क्या कहें ? दृष्टि बदली नहीं तब तक योग्यता कैसे कही जा सकती है ? दृष्टि बदले तभी काम बनता है । छोड़े बिना छुटकारा नहीं है । आपकी देरीसे देर है । छोड़ना तो पड़ेगा ही, ऐसा परमकृपालुदेवने कहा था । ये चर्मचक्षु छोड़ने पड़ेंगे; बाह्यदृष्टि, पर्यायदृष्टि छोड़नी पड़ेगी। दिव्यचक्षु चाहिये । उसे प्राप्त करनेके लिये आवरण हों तब तक योग्यता कैसे कही जा सकती है ? एक मरजिया सौको भारी पड़ता है। ऐसे मरनेको तैयार हो जायें तब काम बनता है । समकितके बिना मोक्ष नहीं है । समकित सुलभ है, सरल है । दृष्टि बदलनी ही पड़ेगी ।
ता. ५-२-३६
बुरा हुआ है तो प्रमादसे हुआ है । प्रमाद, आलस्य छोड़कर अब चेत जायें। यह मनुष्यभव रहा है तो अभी इसे चिंतामणि समान मानकर चेत जायें । 'आणाए धम्मो, आणाए तवो' आज्ञाका आराधन हो धर्म है और आज्ञाका आराधन ही तप है। जीवको आत्माकी पहचान नहीं हुई है, लक्ष्य नहीं हुआ है । वह करनेसे ही छुटकारा है ।
मुमुक्षु - वह करनेके लिये ही यहाँ बैठे हैं।
प्रभुश्री - वह तो ज्ञानी जानते हैं। वह करनेके लिये ही बैठे हैं, उनका काम तो होगा ही । धीरज रखें, धैर्य रखनेकी जरूरत है । काम हो जायेगा। समझ और पकड़ चाहिये । समर्थ स्वामीकी शरण ली है, सद्गुरु सिर पर है तब चिंता कैसी ? यहाँ बोध सुननेसे तो कोटि कर्म क्षय होते हैं, ढेर सारा पुण्य बँधता है और निकट आया जाता है, पासमें आया जाता है ।
यह जीव रंक भी हुआ है और राजा भी हुआ है, हाथके दो बेर कोई न ले ऐसा भी हुआ है । अतः अभी जो आये उसे समता रखकर क्षमापूर्वक सहन करना सीखें। जो आता है वह जायेगा । रहनेवाला कहाँ है ? तुम्हारा क्या है ? सुख दुःख आना हो उतना भले आओ, भेदज्ञानसे झटका मार मारकर काट डालो, उडा दो - भले ही दूर जा पड़े। जो दिखायी देता है, वह पुद्गल है, पर्याय है; उसे अब नहीं देखना है । उसे धक्का मारकर गिरा दो । ज्ञानी तो आत्मा देखते हैं । ऐसे छोटे-बड़े, अच्छे-बुरे नहीं देखते। पुद्गलको पुद्गलरूप, पराया जानते हैं। अपना तो आत्मा है । उसके साथ सगाई संबंध किया है ।
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