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________________ ३७१ उपदेशसंग्रह-३ देत ।' जब तक साता है तब तक सत्संग, बोध और ऐसी कुछ पकड़, जो ज्ञानीने कही है उसे करके उद्यमशील बन जाओ। आबू, ता.१३-६-३५ भक्ति, ध्यान, स्वाध्याय, एक दृष्टि, भाव, आत्मभावना यह अपना धन है। वेदना आती है तब डाकू चोर लूटेरे यह धन लूट लेते हैं। तो ऐसे समयमें अपना धन लुट न जाय इसके लिये क्या करना चाहिये? वेदनी, रोग आते हैं तब भिखारी भीखके टुकड़ेके समान साताकी इच्छा करता है। सामायिक, कायोत्सर्ग, ध्यान, भक्ति, त्याग, वैराग्य, स्वाध्याय नहीं करने देते। वेदना विघ्न डाले तब क्या करना चाहिये? लूटेरे तो हैं! धनको खुला रखेंगे तो लूटेरोंको लूटते देर नहीं लगेगी, पर किसी तिजोरीमें रखा हो तो नहीं ले जा सकते । तो क्या उपाय करना चाहिये? तप, जप, क्रियामात्र कर चुका । इस जीवको मात्र एक समकित हो तो सब हो गया। सबका उपाय एक समकित है। समकित आया हो तो कुछ लुटा नहीं जा सकता। बैठे बैठे देखते रहें। अतः जब तक वेदना नहीं आयी है तब तक समकित, धर्म कर लें। धर्म क्या है? जीवने इसे जाना नहीं है। समता, धैर्य, क्षमा ये अद्भुत हैं। वेदना आये तब समता धारण करें; क्षमा, धैर्यमें रहे। आबू, ता.१५-६-३५ वसिष्ठाश्रममें क्या देखा? किसकी इच्छा की? आत्मा देखा? किसीने आत्मा देखा? जीवका व्यापार ही बाह्य हो गया है। अंतरदृष्टि नहीं हुई है। जीवको रंग नहीं लगा है, प्रेम आया नहीं है। ‘पर प्रेम प्रवाह बढ़े प्रभुसे' बोलता है, कहता है, पर सब लूखा, मंदा, भाव-प्रेम रहित होता है। प्रेम अन्यत्र बिखेर दिया है। भेदज्ञानसे भेद नहीं करता । एक वचन मिला हो उसे सामान्य कर दिया है। अलौकिकता नहीं रखी। 'एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी' यों लग नहीं पड़ा है। दृष्टि बदलनी ही पड़ेगी। इस पर ध्यान नहीं देता। 'सुन सुन फूटे कान' जैसा कर दिया है। चतुरकी दो घड़ी, मूर्खका सारा जीवन । जहाँ देखो वहाँ तू ही तू ही-बीमार हो, स्वस्थ हो, रोग हो, लड़ाई हो, बोलचाल हो, क्रोध हो, मान हो, राग हो, द्वेष हो वहाँ सबमें 'तू ही तू ही'-यही एक लगन नहीं लगी, श्रद्धा नहीं हुई। *"मळ्यो छे एक भेदी रे, कहेली गति ते तणी, मनजी मुसाफर रे चालो निज देश भणी; मुलक घणा जोया रे मुसाफरी थई छ घणी." * भावार्थ-हमें जो एक भेदी मिला है उसकी गति (दशा) की बात हमने बतायी थी। इसलिये कहते हैं कि हे मनरूपी यात्री! अब निजदेशकी ओर प्रयाण करो। अन्य तो बहुत देश देखे, बहुत यात्रा हो चुकी है, सर्वत्र बहुत भटका है। अब अपने देशकी ओर चलो, जहाँ पूर्ण विश्राम है। (भेदी-ज्ञानीने यही किया है।) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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