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________________ ३७० उपदेशामृत आबू, ता.१०-६-३५ ज्ञानीपुरुषका एक वचन भी पकड़ लिया जाय तो ठेठ मोक्ष तक ले जायेगा, समकित हो जायेगा। बहुत बार हमने कहा है, पर किसीने अभी तक पकड़ा नहीं है, विश्वास नहीं किया है, प्रतीति नहीं की है। प्रेम-प्रीति उसीमें करनी चाहिये। परंतु किसीने पकड़ा नहीं है, उपेक्षा की है; अथवा उस समय 'यह अच्छा है' ऐसा कहकर, बादमें चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते सर्वत्र यही करना है, इस पर ध्यान नहीं दिया है। कहना न कहने जैसा किया है। यह चर्मचक्षु है, उसके स्थान पर दिव्यचक्षु चाहिये । 'मात्र दृष्टिकी भूल है।' ज्ञानी स्पष्ट शब्दोंमें मर्म बताकर चले गये हैं। जो इच्छुक हो वह उसकी पकड़ कर लेता है। आबू, ता.११-६-३५ इस स्वप्नको स्वप्न ही समझें। एक आत्माकी बातको लक्ष्यमें रखें। 'आत्मसिद्धि में विशेष ध्यान, सावचेती रखें। ज्ञानी तो तुम्हें रोम-रोमसे जागृत करना चाहते हैं। मैं राजा, मैं रंक, मैं मनुष्य, मैं सुखी, मैं दुःखी आदि अहं ममत्वसे जी रहे हैं, उसमेंसे एक बार तो मार डालना है। एक बार मारकर ज्ञानी पुनः जीवित करते हैं, उदासीनताकी दृष्टि प्राप्त हो ऐसा जीवन प्रदान करते हैं। आत्माको देखा नहीं है। आत्माको सबसे सर्वथा भिन्न देखना चाहिये । वह कैसे हो? भक्तिके 'बीस दोहे', 'यमनियम' 'बहु पुण्यकेरा पुंजथी', 'क्षमापनाका पाठ' आदि नित्य भक्ति की जाय तो कोटि कर्म क्षय होंगे, अच्छी गति मिलेगी। अकेला आया है और अकेला जायेगा। भक्ति की होगी तो वह धर्म साथ जायेगा। आत्माको सुख देना हो तो रुपया पैसा कुछ साथ नहीं चलेगा। एक भजन-भक्ति की होगी वह साथ चलेगी। अनेक भव छूट जायेंगे। अतः यह कर्तव्य है। इससे मनुष्यभव सफल होगा। सारा लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। सबके सिर पर जन्म-जरा-मरण सवार है। सत्संग और बोधकी आवश्यकता है। यदि सुने तो चेत जाये। एक दिन तो धोखा ही है! उस दिन किसीका कुछ नहीं चलेगा। जीव मात्रको यह ऋण चुकाना है। अतः अभी जब तक सुखशांति है, तब तक कर लेना चाहिये। यह कुछ दूसरेके लिये नहीं है। अपने आत्माके लिये है। अन्यसे भाव हटाकर यह भाव करें। यहाँ सत्संगमें पुण्यबंध होता है, कोटिकर्म क्षय होते हैं, जन्म मरण कम होते हैं। जगतकी मायासे तो भव बढ़ते हैं, दुःख खड़े होते हैं। एक बीचमें आता है। क्या? प्रमाद । वह निमित्त नहीं बनाने देता। यहाँ यह निमित्त जोड़ा तो यह बात होती है। एक आत्माकी स्मृति दिला दी। इसकी सँभाल लेनी चाहिये। सबसे श्रेष्ठ बोध है। सुनते ही सुनते रहें तो जैसा संग वैसा रंग लगेगा ही। पर कमी किसकी है? पूर्व कर्म और पुरुषार्थकी। इतनी बात सुननेको मिलती है, यह कुछ ऐसी-वैसी बात है? कितने पुण्य बढ़े हैं तब ऐसी बात हाथ लगी है! अतः सयाने पुरुषोंको चेत जाना चाहिये । बातको ध्यानमें लेनी चाहिये । भूला तभीसे फिर गिन-जागे तभीसे प्रभात । सब बातको छोड़कर एक मात्र आत्मा ही आत्माकी भावना करो। 'भरत चेत, काल झपाटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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