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________________ उपदेशसंग्रह-३ ३६३ हम पर भी ऐसे उपसर्ग आयेंगे । मरण तो एक दिन सबको आना है। अतः इसके लिये तैयार हो जाओ। भेदज्ञानका अभ्यास करो। स्वर्णको चाहे जितना अग्निमें तपायें तब भी वह स्वर्णपना नहीं छोड़ता, वैसे ही ज्ञानीको रोग, दुःख, कष्ट, उपसर्ग, मृत्यु आदिके चाहे जितने ताप आ पड़े तो भी वे अपने ज्ञानस्वभावको नहीं छोड़ते। आबू, ता. ५-४-३५ ___ बोधकी कमी है । सुननेकी आवश्यकता है। सुनते-सुनते कभी वैसा करने भी लग जायेंगे और काम बन जायेगा। एक राजाकी मृत्यु हो गयी । उसका कुमार छोटी उम्रका था। उसे मारकर राज्य हडप लेनेकी काकाके पुत्रों आदिने योजना बनायी। मंत्रीने रानीको यह बात बता दी। रानी कुमारको लेकर भाग निकली। किसी गाँवमें एक किसानके यहाँ जाकर रह गयी। उसका काम वह कर देती। कुमार किसानके बछड़े चराने जंगलमें गया। बछड़े जंगलमें इधर-उधर चले गये । कुमार उन्हें ढूँढता हुआ एक गुफाके पास आया। वहाँ एक मुनिको देखा। वे मुनि कुछ शिष्योंको बोध दे रहे थे। वह सुननेके लिये कुमार भी बैठ गया। बोध बहुत मधुर लगा। 'ये बहुत अच्छा कह रहे हैं, मुझे भी ऐसा करना चाहिये, मुझे ऐसा ही करना है' ऐसे भावमें उसके परिणाम उत्तम हुए। बछड़े तो वापस घर लौट गये थे। वह गुफासे निकलकर घर आ रहा था। भाव परिणाम बोधमें थे, लेश्या उत्तम थी। वहाँ मार्गमें बाघने पकड़कर मार डाला। उत्तम लेश्याके बलसे मरकर देव बना। वहाँसे आयुष्य पूर्ण होने पर धनाभद्र नामक सुप्रसिद्ध श्रेष्ठीपुत्र हुआ। उसी भवमें चारित्रका पालनकर मोक्ष गया। ____एक ही सत्संग हुआ था, परंतु उसी सत्संगमें उत्कृष्ट भाव, परिणाम होनेसे काम बन गया। वैसे ही यहाँ भी सुनते-सुनते भाव, परिणाम तद्प हो जाने पर काम बन सकता है। ऐसा महा दुर्लभ सत्संग है। ऐसे भाग्य कहाँ कि ज्ञानीके वचन कानमें पड़े ? 'रंकके हाथ रतन!' आबू, ता. २४-४-३५ 'श्रीमद् राजचंद्र में से पत्रांक ५७० का वाचन "अनित्य पदार्थके प्रति मोहबुद्धि होनेके कारण आत्माका अस्तित्व, नित्यत्व और अव्याबाध समाधिसुख भानमें नहीं आता।" सहजस्वरूप अपना है। जो दिखायी देता है वह तो अनित्य है, पुद्गल है, जड़ है। तो अब और कोई है? सबको जाननेवाला और देखनेवाला है वह आत्मा है। वह नित्य है। उसका ऐश्वर्य अनंत है। उसे कभी नहीं सँभाला। पूरा संसार उसकी सँभालको छोड़कर परायी पंचायतमें पड़ गया है। जीव सहजस्वरूपसे रहित नहीं है, पर असहज हो गया है। अनादिकालसे स्वयंको भूल गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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