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उपदेशामृत है। मृत्यु आयेगी। अपना माना हुआ सब छोड़ना पड़ेगा। अपना क्या है? उसे पहचाननेके लिये यह मनुष्यभवका अवसर आया है।
...ठाकुर कल आये थे। ये भी ठाकुर है, ये भी ठाकुर है। सब आत्मा हैं। कोई स्त्री नहीं, पुरुष नहीं, ठाकुर नहीं; आत्मा हैं । गधेकी पूँछ पकड़ रखी है, उसे कैसे छोड़ा जाय? मति और श्रुत अज्ञान जो नाई जैसे हैं, उनकी सलाह यह जीव लेता है। अपने आग्रहको छोड़ना कठिन है। इनसे आप सब भाग्यशाली हैं कि वस्तु(आत्मा)को प्राप्त किये हुए पुरुषकी शरण पकड़ी है। जहाजके पीछे नौकाको जोड़ दिया जाय तो वह जहाँ जहाज जाये वहाँ चली जाती है। गाड़ीके पीछे डब्बेको जोड़ा, कड़ा फँसाया तो जहाँ गाड़ी जायेगी वहाँ चला जायेगा। इसी प्रकार जिसके हाथमें रस्सी आ गयी है वह संसार कूपमें नहीं डूबेगा, पर बाहर निकल जायेगा। श्रद्धा ही धर्मका मूल है।
सारा संसार त्रिविध तापसे जल रहा है। सर्व जीव जन्ममरणादि दुःखमय परिभ्रमणमें भटक रहे हैं। वहाँ अब क्या करें? उससे बचनेके लिये क्या करें?
१. मुमुक्षु-सत्संग। २. मुमुक्षु-सत्पुरुषकी भक्ति। ३. मुमुक्षु-सत्पुरुषके आश्रयसे वासनाको क्षय करनेका पुरुषार्थ । ४. मुमुक्षु-आत्माका निश्चय कर लें। ५. मुमुक्षु-बाह्य और आंतरिक परिग्रहका त्याग कर ज्ञानीके चरणोंमें निवास । ६. मुमुक्षु-सद्गुरु द्वारा प्रदत्त स्मरणमें आत्माको संलग्न रखना।
प्रभुश्री-अपेक्षासे आप सबका कहना योग्य है। आप सबने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार करेंगे तो कल्याण होगा। पर सबसे बड़ी बात एक ही है। अनंत ज्ञानियोंने जो कहा है वही कहेंगे, वह हमें भी मान्य है। 'सद्धा परम दुल्लहा।' सत्पुरुषकी श्रद्धा यह सबसे बड़ीसे बड़ी बात है। यदि यह हो गयी तो जप, तप, भक्ति कुछ न हो तो भी कुछ चिंता नहीं। श्रद्धा महाबलवान है। जहाँ श्रद्धा है वहाँ जप, तप, भक्ति सर्व हैं ही। अतः इस भवमें एक श्रद्धाको अविचल कर लें।
यदि एक मात्र इसको पकड़ लेंगे तो काम बन जायेगा। हजारों भव नष्ट हो जायेंगे। देवगति प्राप्त होगी। अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त होगा।
कुलधर्म या कोई भी माना हुआ धर्म मेरा नहीं है। सबके साथ मात्र उदासीन संबंध रखें । मेरा धर्म आत्मा है। सगे, संबंधी, रुपया-पैसा कोई मेरे नहीं है। एक धर्म ही मेरा है। वही मेरे साथ चलेगा। रोग हो, व्याधि हो, तो भी उससे भिन्न, उसे जाननेवाले ऐसे आत्माको सद्गुरुने यथार्थ जाना है वही मैं हूँ, ऐसी आत्मभावना रखें।
आजसे नया अवतार हुआ, ऐसा मानें । जैसे मरकर फिर जन्मे हों। अब फोकटका (रागद्वेष किये बिना) मैं देखता रहूँ। जब कुछ भी मेरा नहीं है, तब उसमें लिप्त क्यों होऊँ ? जो आये उसे देखने -जाननेवाला, उससे भिन्न मैं हूँ, ऐसा मानकर फोकटका देखता रहूँ।
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