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________________ ३६२ उपदेशामृत लाखों करोड़ों रुपये होंगे पर एक पाई भी साथ नहीं ले जायेगा। इसमेंसे कुछ कंठस्थ किया होगा, नित्य पाठ किया होगा तो वह धर्म साथमें ले जायेगा। आबू, ता. ४-४-३५ भेदविज्ञानसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। ऐसे शस्त्र हैं, पर उनका उपयोग नहीं किया है। जो यह जानता है कि चावल और छिलके अलग अलग है वह छिलकोंको छोड़कर चावल प्राप्त करता है। वैसे ही आत्मा और कर्म भिन्न भिन्न हैं, ऐसे भेदज्ञानके अभ्याससे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। आत्मा मरता नहीं, जलता नहीं, कटता नहीं, भेदा जाता नहीं। आत्माकी मृत्यु नहीं होती ऐसा निश्चय हो जाय तो कितनी शांति मिले! ये वचन कानमें पड़ते हैं ये कैसे महाभाग्य हैं! यहाँ कोटि कर्म क्षय होते हैं। यह भक्ति है। भक्ति ही भवसे तारनेवाली है। मनुष्यभव महादुर्लभ इसीलिये कहा गया है। जब तक रोग नहीं लगा, बुढ़ापा नहीं आया तब तक आत्माकी संभाल ले ले। रुपया-पैसा, मान-बड़ाई, मेरा तेरा यह सब धूल है। अपना तो एकमात्र आत्मा है। लाखों रुपये एकत्रित करेंगे तो भी यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा, कोई साथ नहीं ले गये, न ले जायेंगे ही। कमाईका ढेर तो यहाँ सत्संगमें लगता है। वचन सुननेके अनुसार आत्मा परिणमित हो जाय तो कोटि कल्याण हो जाय। अकेला आया है, अकेला जायेगा। लूटमलूट लाभ उठानेका यह अवसर आया है! क्या करें? अधिकारी नहीं है। कमी किस बातकी है? ये सब सो रहे हैं, अभी भी जागते नहीं। मोहनिद्रामें सो रहे हैं यही कमी है। 'जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग।' सब लौकिकभावमें निकाल दिया है, अलौकिक भाव आया ही नहीं। अनादिसे ऊँघ रहा है, अब जागृत हो जायें। लूटमलूट लाभ उठा लें। समय मात्रका भी प्रमाद न करें। 'समयं गोयम मा पमाए'। शीशी फटसे फूट जाती है, वैसे ही देह छूट जायेगी। __'जागे तभी सबेरा' 'भूले वहींसे फिर गिनो' आत्मा तो मरनेवाला नहीं है। अतः अब उसकी सँभाल लो। सब सबकी संभालो, मैं मेरी फोड़ता हूँ।' अपनी-अपने आत्माकी सँभाल इस एक भवमें तो कर लो। शत्रुजय पर्वत पर शत्रुओंने पाँडवोंको लोहेके तप्त बख्तर पहनाकर भयंकर उपसर्ग किया। पर पांडव देहाध्यास छोड़कर आत्मध्यानमें तल्लीन रहे, आत्मध्यानमें अचल रहे और शिवपदको प्राप्त हुए। पाँडवोंने क्या किया? “आत्मा अपना है, वह तो अजर, अमर, देहादि कर्म नोकर्मसे भिन्न, ज्ञाताद्रष्टा, ज्ञान-दर्शन-उपयोगमय, शुद्ध, बुद्ध एकस्वभावी है। उपसर्ग आदि शरीरको होते हैं, आत्मा और शरीरमें आकाश-पाताल जितना अंतर है" इस प्रकार भेदज्ञानसे आत्मध्यानमें अचल रहे। १. कुछ पुरबियें नदी किनारे वनभोजनके लिये गये थे। सबने अपना-अपना चौका बनाकर रसोई तैयार की। फिर सब एक साथ नदीमें नहाने गये। नहाकर वापस आने पर एक पुरबियेको शंका हुई कि मेरा चौका कौनसा होगा। यह निश्चित करनेके लिये उसने एक पत्थर उठाकर कहा “सब अपनी सँभालो, मैं अपनी (हंडी) फोड़ता हूँ" अतः सब अपनी अपनी हंडीको सँभाल बैठे। तब उसने पत्थर फेंककर अपना चौका सँभाल लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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