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________________ उपदेशसंग्रह-३ ३६१ है। प्रतिदिन नियमित भक्ति करें। बीस दोहे, क्षमापना, छह पदका पत्र, आत्मसिद्धि, स्मरण, 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे' इनका प्रतिदिन पाठ करें। “अनादि स्वप्नदशासे उत्पन्न जीवके अहंभाव ममत्वभावकी निवृत्तिके लिये ज्ञानीपुरुषोंने यह छह पदकी देशना कही है।" इसके अर्थ पर विचार करें। चमत्कारिक है। भक्तिमें लगे रहें। इस कालमें एक समकित सुलभ है, सरल है। श्रद्धा, प्रतीति, विश्वाससे इसे पकड़ लें। कालका भरोसा नहीं है। पक्षियोंका मेला है। हो सके उतना धर्म कर लें। आबू, ता. २-४-३५, रात्रिमें 'आत्मसिद्धि' और 'छ पद'का पत्र चमत्कारी है! लब्धियाँ प्रकट हो ऐसा है। प्रतिदिन पाठ करनेसे भी कोटि कर्म क्षय होते हैं। नौ निधान और अष्टसिद्धि इसमें समाहित है। ___ 'रंकके हाथमें रत्न'-जैसे बालकके हाथमें स्वर्णमोहर और कंकर हो तो उसे दोनों समान है, वैसे ही योग्यताके बिना, अधिकारित्वके बिना जीवोंको उसका माहात्म्य समझमें नहीं आता। अलौकिक भावसे, अलौकिक दृष्टिसे देखना चाहिये, वैसा देखा नहीं जाता। कृपालुदेवने पहले चार व्यक्तियोंको ही आत्मसिद्धि दी थी। अन्य किसीको पढ़ानेकी, सुनानेकी, मौखिक याद करनेकी मनाही थी। मात्र सौभाग्यभाईने इसका महत्त्व समझा था। इसमें आत्मा दिया गया है, ऐसा उनकी समझमें आया था। योग्यताके बिना इसका अलौकिक माहात्म्य नहीं लगता। पाँच-पाँचसौ गाथाओंका स्वाध्याय करनेकी अपेक्षा इसका स्वाध्याय अलौकिक है! जौहरी ही नगीनेका मूल्य जानता है, बालकको उसके मूल्यका पता नहीं। आज हर किसीको इसे कंठस्थ करनेकी आज्ञा मिली है, क्योंकि काल कठिन है। योग्यता प्राप्त हो तो काम होता है। जिज्ञासा बढ़ायें, कमी दूर करें। जिज्ञासा जैसी चाहिये वैसी नहीं है। इसीकी उत्कंठा हो तो एक गाथामें भी चमत्कार है। उसका माहात्म्य समझमें आयेगा अलौकिक भाव आने पर । ओहो! यह तो मुझे मौखिक याद है, यों सामान्य बनाकर बुरा किया है। यह गहन अर्थसे भरपूर है। इसे कौन जानता है? "छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, ओ ज धर्मनो मर्म. ओ ज धर्मथी मोक्ष छे, तुं छो मोक्षस्वरूप; अनंत दर्शन ज्ञान तुं, अव्याबाध स्वरूप." इस पर विचार ही कहाँ किया है ? 'कर विचार तो पाम' यह लब्धिवाक्य है। 'जे लोकोत्तर देव नमुं लौकिकथी' ऐसा हुआ है। अलौकिक भावसे नमस्कार करना चाहिये। अलौकिक भावसे देखना चाहिये । उसे सामान्य बना दिया है । तब अलौकिक फल कैसे प्राप्त होगा? "अनादि स्वप्नदशासे उत्पन्न जीवके अहंभाव ममत्वभावकी निवृत्तिके लिये ज्ञानीपुरुषोंने यह छह पदोंकी देशना कही है। उस स्वप्नदशासे रहित मात्र अपना स्वरूप है, यदि जीव ऐसे परिणाम करे तो वह सहज मात्रमें जागृत होकर सम्यग्दर्शनको प्राप्त करता है"- यों सम्यग्दर्शन सुलभ है! पर विचार नहीं किया। नित्य पाठ करता है, पर गहरे उतरकर विचार नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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