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________________ ३५६ उपदेशामृत सुंदर आत्माके घरमें मैं निवास करूँगा। फिर वेदना मेरा क्या बिगाड़ सकती है ?" भेदविज्ञान होनेसे ज्ञानी परमें परिणमित नहीं होते परंतु ज्ञाता-द्रष्टा साक्षी रहते हैं, न्यारेके न्यारे रहते हैं। ता. २६-१२-३४ आत्मा ही सारे जगतमें सर्वोत्कृष्ट वस्तु है। आत्मामें जो सुख है वह संसारमें कहीं नहीं है। इन्द्रके, चंद्रके सुख भी नाशवान हैं, माया हैं। सच्चे सुखी एक मात्र ज्ञानी हैं। वे आत्मामें रमण करते हैं। ज्ञानीके पास दिव्य चक्षु होते हैं, जिससे वे आत्माको देखते हैं। अन्य जीव बाह्य दृष्टिसे पर्यायको देखते हैं । चर्मचक्षुसे आत्मा नहीं देखा जा सकता। आत्माको किस प्रकार देखा जाय? पूर्वकर्म और पुरुषार्थसे । पूर्वकर्म है तो यह मनुष्यभव मिला है; सत्संग, सत्पुरुषका योग यह सब मिला है। अतः अब अवसर आया है। तैयार हो जायें। पुरुषार्थ करें। सत् और शील पुरुषार्थ है। शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, अनंत सुखमय, मोक्षस्वरूप, परमात्मा-सिद्ध-समान सर्व जीव हैं। ज्ञानीकी भक्ति सहित सत्संगमें आत्माकी बात सुनना पुण्यका कारण है-कोटि कर्मका नाश होता है। अतः पुरुषार्थ करें। चमकमें मोती पिरो लें। मृत्यु तो सबको एक दिन आयेगी। उसके पहले चेत जायें। 'समयं गोयम मा पमाए' यह वाक्य चमत्कारी है। समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। ४ ता. २७-१२-३४ कैसे शाश्वत सुख हैं आत्माके ! उनका वर्णन नहीं हो सकता! इन्द्र, चक्रवर्ती आदिके सुख, सर्वार्थसिद्धिके सुख भी कुछ गिनतीमें नहीं । सांसारिक सुख सब नाशवान हैं, पराधीन हैं। आत्माका सुख अनंत है, स्वाधीन है। मोहकी प्रबलता इतनी अधिक है कि वह श्रद्धाको अचल होने ही नहीं देता। मनुष्यभव कितना दुर्लभ है? भाव बदले तो केवलज्ञान ! यह मनुष्यभवमें ही हो सकता है। अतः इस मनुष्यभवको सफल करनेके लिये जाग्रत हो जाओ, जाग्रत हो जाओ। यह रोग हुआ है, असाता वेदनीका उदय हुआ है, उस समय यदि ऐसी समझ रहे कि “यह रोग तो शरीरमें होता है, यह तो कर्म है। उसको जानने-देखनेवाला मैं तो आत्मा हूँ। मैं तो रोगादिसे केवल भिन्न हूँ। ये कर्म क्षय हो रहे हैं, तब यह मुझे हो रहा है ऐसा नहीं सोचना चाहिये। ज्ञानीने देखा है, अनुभव किया है, ऐसा आत्मा मेरा है, वह मैं हूँ। वह तो रोग आदिसे कभी विनष्ट नहीं हो सकता।" ऐसी समझ रहें, देहात्मबुद्धि छूटकर स्वयंको ज्ञाताद्रष्टा भाव रहे तो कर्म क्षय होते हैं। किन्तु यदि ऐसा माने कि यह मुझे हो रहा है, हर्ष शोक करें तो उस देहात्मबुद्धिसे नवीन अनंत असाताका बंध कर डालता है। समझ बड़ी बात है। कर्मशत्रुको मारनेके लिये भेदविज्ञान प्रबल असिधारा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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