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उपदेशसंग्रह-३ सच्चा नहीं, बनावटी है, पतंगका रंग है, मजीठका नहीं। जीवको समझ हो तो मजीठका रंग लगता है। यह कर्तव्य है। ‘कर विचार तो पाम' यह कथन चमत्कारी है। आत्मसिद्धिमें बहुत अच्छी बात कही है
“छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; ।
नहि भोक्ता तुं तेहनो, ओ ज धर्मनो मर्म." जिनको देहाध्यास छूट गया है, वे करते हुए भी नहीं करते, खाते हुए भी नहीं खाते, बोलते हुए भी नहीं बोलते, भोग भोगते हुए भी नहीं भोगते, यह आश्चर्य तो देखो! तब उन्हें भेदज्ञान हुआ न? हैं तो संसारमें, फिर भी संसारमें नहीं; देहमें होते हुए भी देहमें नहीं है! यह समझमें परिवर्तन हो गया न?
यह तो 'सुख आया, दुःख आ पड़ा, पूजा हुई, सत्कार हुआ, व्याधि आयी, मरण आया' यों मान बैठा वहाँ कर्ता भोक्ता हुआ। स्वयं कैसा है? सिद्धके समान, न छोटा न बड़ा । ऐसी दृष्टि छोड़ेगा? मात्र दृष्टिकी भूल है। यह भूल नहीं निकली है । बालककी भाँति बाहर देखता है, इसे नहीं देखता। पर्याय देखकर उसे आत्मा माना। 'बूढ़ा हूँ, दुःखी हूँ', यह सब मिथ्या माना है। तू मोक्षस्वरूप है।
“ओ ज धर्मथी मोक्ष छ, तुं छो मोक्षस्वरूप;
अनंत दर्शन ज्ञान तुं, अव्याबाध स्वरूप." तू ऐसा नहीं है। बाधा-पीड़ा रहित, अनंत ज्ञानदर्शनवाला तू है। विश्वास आयेगा? मिथ्याको सत्य मानना यह कैसी भारी भूल है! मूल वस्तु पर विचार नहीं किया। अजर, अमर, अविनाशी, शाश्वत! न स्त्री, न पुरुष, ऐसा तू आत्मा है। हम कह रहे हैं उसे तू सत्य मान । विचार करेगा तो आनंद ही आनंद हो जायेगा।
"शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम;
बीजुं कहिये केटलुं? कर विचार तो पाम." इन तीन गाथाओंमें यों पकड़ा दिया है। मृत्युके समय इन तीन गाथाओंमें उपयोग लग जाय तो काम बन जाय । इसका भेदी मिले, पकड़ हो, विचार करें तो पाये, समाधिमरण हो जाय ।
एक दिन यह देह तो छूटेगी, मरण आयेगा तब देख लेना! जीभ सूख जायेगी, कानसे सुनाई नहीं देगा, आँखका सामर्थ्य चला जायेगा। काम अधूरे छोड़कर आया है, अधूरे छोड़कर जायेगा। सब गये छोड़ छोड़कर । काल किसीको छोड़ता है? __मेहमानो! अवसर आया है। यह चमत्कारिक गाथा आत्माको समझनेके लिये है। इसे लौकिक दृष्टिमें निकाल दिया है। अलौकिक दृष्टिसे नहीं देखा है। मृत्युकी वेदनाके समय बोध याद आ जाये तो काम बन जाये। भले ही ऐसा दुःख रहे, पर मेरा तो-शुद्ध बुद्ध, चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम-ऐसा आत्मस्वरूप है। वेदना, रोग, मृत्यु कोई मेरे नहीं हैं। इसे देखनेवाला, जाननेवाला भेदविज्ञान द्वारा भिन्न प्रतीत होता है। 'कर विचार तो पाम ।'
ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको रोग तो भोगना ही पड़ता है। परंतु ज्ञानी कहते हैं-"इससे दुगुनी वेदना भले ही आये, मैं तेरे घरमें रहूँगा तब न? क्षमा, सहनशीलता, संतोष, धैर्य, समता-इस
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