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________________ ३५४ उपदेशामृत ता. १७-११-३४ बड़े से बड़े शत्रु पाँच विषय और चार कषाय हैं। उनके प्रति कटाक्ष दृष्टि रखें। छह खिड़कियोंवाले एक मकानमें खड़े रहकर दिनभर एक खिड़कीको छोड़कर दूसरीसे, दूसरीको छोड़कर तीसरीसे, यों खिड़कियोंसे बाहर ही देखा करे तो मकानके अंदर क्या है उसका पता नहीं लगता। इसी प्रकार पाँच इन्द्रियाँ और मनसे आत्मा बाह्य विषयोंमें ही आसक्त रहे तब अंदर क्या है वह किस प्रकार ज्ञात हो? खड़ा तो अंदर है पर दृष्टि बाहर है। उस दृष्टिको अंदर करना है। आत्माको देखना है। तब अपनी सर्व विभूति ज्ञात होगी। ___ अपनी वस्तु तो आत्मा है। संकल्प विकल्प आदि अपने नहीं है। आत्माको देखें, अंतरमें देखें। बाहर देखनेसे बंधन हुए हैं। मेहमान है, अतिथि है। 'पवनसे भटकी कोयल।' अकेला है, अकेला जायेगा। अभी भी बंधनमें है, मनुष्यभव महान पुण्यसे मिला है। बंधनसे छूटनेका उपाय सत्संग और सत्पुरुषका बोध है । आत्माकी बात, उस पर विचार मनुष्यभवमें ही हो सकता है। कोटि भव नष्ट होते हैं। सब कलंक है, संयोग है, नाशवान है। अकेला आया है और अकेला जायेगा। अब आत्मासे सगाई करो, उसे पहचानो। सद्गुरुके बिना ज्ञान नहीं है। आप सिद्ध समान है, आत्मा है। पुरुष नहीं, स्त्री नहीं। 'पर्याय दृष्टि न दीजिये' जहाँ दृष्टि डाले वहाँ आत्मा देखें । जगत आत्मारूप देखा जाय तो कैसा हो जाय! पर गुरुगम चाहिये । विषयकषाय सो तू नहीं, तू तो आत्मा है। यह सब तेरा नहीं है, यह तो संबंध है। संबंध तो छूट जाता है। प्रत्येकके पास आत्मा है, भाव है, उपयोग है। कमी किसकी है? भान नहीं है उसकी । दृष्टि बदलनेसे ही भान होता है। विकारयुक्त दृष्टि हो वहाँ वैराग्ययुक्त दृष्टि करनी चाहिये । यही पुरुषार्थ कर्तव्य है। ता.३०-११-३४ 'नहीं, नहीं, नहीं' करते जो शेष रहे वह तू है। जिसे देखना है उस पर भाव करें तो वैसा परिणमन होता है। उपयोगकी बहुत आवश्यकता है। उपयोग पहचान कराता है। यह जड़ और यह चेतन-ऐसी पहचान नहीं है। सभी भूलोंमें मूल भूल क्या है ? मिथ्यात्व । संसारका मूल मिथ्यात्व है। जड़को अपना मानना ही मिथ्यात्व है। वस्तुकी पहचान नहीं है। जो जैसा हो उसे वैसा न कहा जाय और अन्य कहा जाय यही मूल भूल है, यही अज्ञान है । आत्मा सत् है, उसके स्थान पर मिथ्या जगतको सत् कहता है। आत्माको देखा हो तो ज्ञान कहलाता है। अन्यको अपना मानना और स्वयंको भूल जाना, है कुछ और देखना कुछ, क्या यह भूल नहीं है? आत्माके बिना क्या यह सब देखा जा सकता है? अतः उसे देखें। उस पर भाव हों तो तुरत परिणमन होता ही है। जीवको इसीका ध्यान रखनेकी आवश्यकता है। इसे सँभालना चाहिये, स्मरणमें याद करना चाहिये, इसीमें ही चित्त लगाना चाहिये । यही कर्तव्य है। सावचेत होने जैसा है, धोखा है। यह सब सत्य नहीं है। मायावी प्रकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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