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उपदेशसंग्रह-३
३५३ मेरा मेरा करता था वह सब बदल गया। मेरा तो एक मात्र चैतन्य, जड़ कभी मेरा नहीं हो सकता, मैं उससे भिन्न हूँ, अलग हूँ-ऐसा भेदज्ञान होने पर मोक्ष होता है। समझ बदल जानी चाहिये । जहाँ तहाँ बोधकी आवश्यकता है। वह हो तो समझ बदलेगी। समझनेसे ही मुक्ति है। समझे तो सरल है, अन्यथा महा दुष्कर है। सत्संगसे समझ आती है। - अनादिसे संयोगको आत्मा माना है। इस आग्रहको छोड़ना पड़ेगा। मात्र आत्मा, आत्माकी पकड़ करें। आत्माकी कैसी सत्ता है! आत्मा कैसा है! आत्माको जाननेका अवसर आया है। ____एक भाई सामायिक लेकर बैठा । सामायिक पूरी होनेपर मित्रके साथ नाटक देखने जायेंगे, इस विकल्पमें सामायिक पूरी हुई। दूसरा भाई व्यावहारिक कामसे स्मशानमें गया, किंतु भाव सामायिकके थे, उसीका विचार था। दूसरे दिन गुरुने कहा, “सामायिक तो स्मशानमें गया, उसे हुई, उसे तप हुआ। दूसरे भाईने तो कर्म बाँधे । निवृत्ति मिली तब सत्यानाश किया!"
ता. १६-११-३४ 'श्रीमद् राजचंद्र में से वाचन
“जो जीव मोहनिद्रामें सोये हुए हैं वे अमुनि हैं। निरंतर आत्मविचारपूर्वक मुनि तो जाग्रत रहते हैं। प्रमादीको सर्वथा भय है, अप्रमादीको किसी तरहसे भय नहीं है।" प्रमत्त किसे कहेंगे? अप्रमत्त किसे कहा जायेगा?
आत्मभावमें रहे वह अप्रमत्त । वस्तुको प्राप्त ऐसे आप्त पुरुषमें वृत्ति, परिणाम ले जाना अप्रमत्त होनेका कारण है। सत्संगमें बोध सुना हो तदनुसार यह मेरा नहीं, यह मेरा नहीं, यों भिन्नता अनुभव करें अर्थात् भेदज्ञान हो तो अप्रमत्त बना जायेगा।
विषय-कषाय बड़े शत्रु हैं। विषयोंके बाह्य त्यागसे भी फल है। पर जब तक अंतरंग त्याग न हो तब तक काम नहीं बनता । वृक्षको ऊपर ऊपरसे काटने पर जब तक मूल रहेगा, तब तक फिरसे उगेगा, नष्ट नहीं होगा; किन्तु मूलमेंसे काट देगें तो ही दुबारा नहीं उगेगा। इसी प्रकार अंतरके विषय-कषायको निर्मूल करें। वृत्तिका क्षय करनेका पुरुषार्थ करें।
"एही नहि है कल्पना, एही नहीं विभंग;
जब जागेंगे आतमा, तब लागेंगे रंग." दीपकसे दीपक प्रकट होता है। आप्तपुरुष दीपक है। उसमें वृत्ति, परिणाम करनेसे दीपक प्रकट होगा।
आलस्यमें, प्रमादमें, गफलतमें सब जा रहा है। "कदम रखनेमें पाप है, देखनेमें जहर है और सिर पर मौत सवार है, यह विचार करके आजके दिनमें प्रवेश कर।" जो कल करना है उसे आज ही कर लें। कालका विश्वास नहीं है।
आत्माको देखना हो, पर गुरुगमके बिना कैसे देखेंगे? वहाँ तो ताले जड़े हुए हैं। तब चाबीके बिना द्वार कैसे खुलेगा? 'पावे नहि गुरुगम बिना, एही अनादि स्थित।' यह कथन त्रिकालमें भी नहीं बदलेगा। गुरुगम तो चाहिये ही।
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