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________________ ३५२२ उपदेशामृत जाये। ज्ञानीको तो अब आपको जगाना है, सोने नहीं देना है। अतः जाग्रत हो जायें, चेत जायें, आत्माको पहचानें। जन्म, जरा और मृत्यु-जन्म, जरा और मृत्यु, इनके जैसा अन्य कोई दुःख नहीं है। यह दुःख किसे नहीं है? चक्रवर्ती, इंद्र आदि सभी दुःखी ही हैं। संपूर्ण लोक त्रिविध तापसे जल रहा है। मेरा मेरा' मान रहा है, पर एक समय तो यह सब अवश्य छोड़ना पड़ेगा। सुई भी साथमें नहीं आयेगी। सब काम अधूरे छोड़कर जाना पड़ेगा। किसीके पूरे नहीं हुए हैं। अतः सावधान हो जाओ। काचकी शीशीकी भाँति यह देह फटसे फूट जायेगी। फिर ऐसा योग कहाँसे मिलेगा? मनुष्यभव बहुत दुर्लभ है। आपके पास क्या है? भाव है, उपयोग है, आत्मा है । यह पूँजी आपकी है, यह मूल पूँजी है। आप सबके पास है। उसकी पहचान करो। उसकी पहचान यहाँ सत्संगमें ही होगी। स्वभावको छोड़कर विभावमें परिणत हुए हैं, शुद्ध उपयोगको छोड़कर अशुद्ध उपयोगमें रमण कर रहे हैं और परमात्मस्वरूपको छोड़कर बहिरात्मतामें रमणता है, यह सब परका ग्रहण अर्थात् चोरी है। सत्संगके प्रति अलौकिक भाव हों तभी आत्माकी पहचान होती है। एक मात्र आत्मा, आत्मा और आत्माकी ही बात । इतना भव आत्माके लिये ही बितायें। आत्माको सँभालें। सत्पुरुषको ढूंढकर उसके एक भी वचनको ग्रहण करें, पकड़ लें। यही आपके साथ आनेवाला है। आज्ञासे जो-जो साधन प्राप्त हुए हैं, वे मोक्ष देनेवाले होंगे। सामायिक लौकिक रीतिसे भले ही हजारों करें, पर ज्ञानीकी आज्ञासे पाँच-दस मिनिट भी आत्माके लिये बितायेंगे तो वह दीपक प्रकट करेगी। 'वीतरागका कहा हुआ परम शांत रसमय धर्म पूर्ण सत्य है।' वीतराग अर्थात् कोई मतमतांतर नहीं रहा। यह पाठ चमत्कारी है, नित्य पढ़ने योग्य है। 'मारग साचा मिल गया, छूट गये संदेह ।' इस एक दोहेमें भी चमत्कार है! तोतारटंत, ऊपर ऊपरसे कंठस्थ किया होने पर भी किसी . समय सत्पुरुषसे मर्म समझमें आनेपर दीपक प्रकट हो जायेगा। ऐसे चमत्कारिक इस पुरुषके-परमकृपालुदेवके वचन हैं। ‘आत्मा है' आदि छह पदका पत्र अपूर्व है! भाव अलौकिक होने चाहिये । 'सम्मद्दिठ्ठी न करेइ पावं' ज्ञानी आत्मा हैं। कर्म जड़ हैं। ज्ञानी जड़को पर समझकर ग्रहण नहीं करते। "जिन सो ही है आतमा, अन्य होई सो कर्म; कर्म कटे सो जिनबचन, तत्त्वज्ञानीको मर्म." इस जीवको भेदज्ञानकी आवश्यकता है। वज्रकी भींत पड़े तो यह पानी इस ओर और दूसरा पानी उस ओर, अलगके अलग। बोधकी आवश्यकता है। तब जड़ और चेतन एक नहीं माने जायेंगे, अलग अलग ही लगेंगे। अंधेरेमें दीपक लायें तो उजाला होते देर नहीं लगेगी। यह मेरा शरीर, यह मेरा घर-सब १. सम्यग्दर्शनरूपी दीपक । प.पू. प्रभुश्रीजीने दीपक शब्दका प्रयोग समकित सूचक अर्थमें किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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