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________________ ३५१ उपदेशसंग्रह-३ १“बहिरातम तजी अंतर आतमा-रूप थई थिर भाव, सुज्ञानी, परमातमर्नु हो आतम भाववू, आतम अर्पण दाव, सुज्ञानी. सुमतिचरणकज आतम अरपणा." परमात्मा क्या परदेश गया है? सबके पास है। चमत्कार है, चेत जायें। जिसको श्रद्धा प्राप्त हो गयी उसको अधिकसे अधिक अर्धपुद्गल परावर्तनमें मोक्ष होगा ही। अतः श्रद्धा अचल करें। मुमुक्षु-यहाँ जो हैं उन सबको श्रद्धा तो है। प्रभुश्री-यदि सबको श्रद्धा है तो सभीका मोक्ष भी निश्चित है। श्रद्धा सच्ची होनी चाहिये। मुमुक्षु-सच्ची श्रद्धा किसे कही जाये? प्रभुश्री-ज्ञानीने आत्माको जैसा जाना है, वैसा मेरा आत्मा है, वही मुझे मान्य है और मैं तो ज्ञानीका दास हूँ, ऐसी सच्चे ज्ञानीकी जिसको श्रद्धा होगी उसका मोक्ष होगा ही। अनेक जीवोंका उद्धार हो जायेगा। ____ अभी तक एक भी नमस्कार नहीं किया है। एक बार भी दर्शन नहीं किये हैं। बोध सुनकर भी अभी तक सुना नहीं। योग्यताकी कमी है। योग्यता आने पर ज्ञानी बुलाकर दे देंगे। आत्मा तो ज्ञानी ही देंगे। दृष्टि बदले तो कुछ दूसरा ही दीखता है। जगत आत्मारूप दिखायी देता है। चर्मचक्षुसे जो दिखायी देता है वह पर्यायदृष्टि है। ज्ञानचक्षु प्राप्त होनेपर आत्मा दिखायी देगा। ___'समयं गोयम मा पमाए' समय मात्रका भी प्रमाद न करें। उपयोग आत्मामें लगे, स्मरणकी ओर लगे तो कोटि कर्म क्षय हो जाते हैं। अतः समय मात्र भी उपयोग अन्य स्थान पर न भटके, इसके लिये पुरुषार्थ करें। बीत रहे अमूल्य समयको उपयोगमें लेनेके लिये जाग्रत हो जाये। यह कोटि कर्म क्षय करनेका अवसर है। ता. १३-११-३४ - यह जीव सत्पुरुषका, ज्ञानीपुरुषका प्रकट चोर है ऐसा कहा जाता है, आपको यह बात कैसी लगती है? (चर्चा होनेके बाद उपदेश) शुद्ध आत्मस्वरूप हमारा है। उसे ज्ञानीने जाना है, उसे छोड़कर मेरा हाथ, मेरा पाँव, मेरा शरीर आदि परवस्तु और परभावका ग्रहण चोरी है। अपनी वस्तुको छोड़कर परायीको ग्रहण करना चोरी है। शुभ-अशुभ भाव चोरी है। मात्र शुद्ध भाव अपना है। _पूरा जगत मोहनिद्रामें सो रहा है, ऊँघ रहा है। सत्पुरुषके वचन उसे ऊँघमेंसे जागृत करनेवाले हैं। सत्संगमें वे वचन-बोध श्रवण करनेसे कोटि भव नष्ट होते हैं। पापके दल संक्रमण कर पुण्यरूप हो जाते हैं। 'चमकमें मोती पिरो ले, नहीं तो घोर अंधकार है। अतः सावधान हो १. हे सुज्ञानी! बहिरात्मभाव छोड़कर अंतरात्मारूप स्थिरभाव करके परमात्मपदमय आत्मभावका चिंतन करो। आत्मा परमात्माको समर्पित करनेका अवसर आया है। हे सुमतिनाथ प्रभु! मैं आपके चरणकमलमें आत्मा अर्पण करता हूँ। (देखें-श्री आनंदघनजी कृत सुमति जिन-स्तवन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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