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उपदेशामृत उपयोग शुभ-अशुभ होता है तो क्या शुद्ध नहीं हो सकता? अवश्य होगा। सर्व आत्मा सिद्ध समान हैं। पुरुषार्थ करो, सत्पुरुषार्थ करो। भवस्थिति आदि तूफानको जाने दो, सत्पुरुषार्थ करो।
दीपोत्सव, सं.१९९० हम अपने हृदयकी बात बताते हैं। हमें तो रोम-रोममें एक यही प्रिय है। परमकृपालुदेव ही हमारी जीवनडोर हैं। जहाँ उनके गुणगान होते हों वहाँ हमें उल्लास आता है। हमारा तो सर्वस्व वे ही हैं। हमें तो वे ही मान्य हैं।
आपको ऐसी मान्यता करना यह आपका अधिकार है। जिसका महाभाग्य होगा उसे यह मान्यता होगी। सरलतासे बता रहे हैं कि जिसे यह मान्यता होगी उसका कल्याण हो जायेगा। भोले-भालोंका काम होगा। श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति होंगे उनका भवभ्रमण मिट जायेगा।
ऐसा दृढ़ करें कि मैंने तो आत्माको जाना नहीं है, परंतु ज्ञानी परमकृपालुदेव और अनंत ज्ञानियोंने उसे यथातथ्य जाना है, वैसा ही मेरा आत्मा है। परमकृपालुदेवने जिस आत्माको देखा है, वही मुझे मान्य है, उसे प्राप्त करनेके लिये मुझे उन्हींकी शरण ग्रहण करनी है। इतने शेष भवमें अब तो मुझे यही करना है, यही मानना है कि परमकृपालुदेवने जिस आत्माको जाना, देखा, अनुभव किया, वैसा ही मेरा आत्मा शुद्ध, सिद्ध समान है। अतः अब मुझे मान्यता, विश्वास, श्रद्धा, प्रतीति रोमरोममें यही करनी है। इतने भवमें यदि इतनी श्रद्धा तो गयी तो मेरा अहोभाग्य! फिर चाहे तो दुःख आये, रोग आये, चाहे तो देह छूट जाय, पर मेरी यह श्रद्धा अचल रहे।
“समकित साथे सगाई कीधी, सपरिवारशुं गाढी;
मिथ्यामति अपराधण जाणी, घरथी बाहेर काढी." चाहे तो अभी नरकमें जाना पड़े, पर मेरी श्रद्धा अन्य नहीं होगी।
व्रत नियम करना यह आपके हाथमें है। यह कर्मकी प्रकृति है। आत्मा नहीं। 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या'- आत्मा सत् और जगत मिथ्या । ज्ञानी आत्मा हैं, उनकी श्रद्धा समकित है, यह एक ही सत्य है। दिनको यदि ज्ञानी रात कहें तो तदनुसार अपने विकल्पोंको छोड़कर रात कहें। ऐसी श्रद्धावाले जीव कृपालुदेवके समयमें थे। ऐसी श्रद्धा चाहिये। __ जिन जीवोंको परमकृपालुदेवकी श्रद्धा हुई है, उनके प्रति हमें पूज्यभाव होता है, क्योंकि वे सत्यसे चिपके हैं, जिससे उनका कल्याण होनेवाला है।
ता. १०-११-३४ १"अंतरंग गुण गोठडी रे, जनरंजनो रे लाल;
निश्चय समकित तेह रे, दुःखभंजनो रे लाल." 'अंतरंग गुण गोठडी' से क्या तात्पर्य है?
१. भावार्थ-जहाँ अंतरंग गुणोंके साथ मैत्री यानि प्रेम-प्रीति है, आत्मामें ही रमणता है, वहीं निश्चय समकित है। (श्री यशोविजयजी कृत चंद्रबाहु स्तवन ।)
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