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________________ उपदेशसंग्रह-३ ३५७ ता. २५-१-३५ राग, द्वेष और मोहने पूरे जगतको वशमें कर रखा है। जन्म-मरण करानेवाले बड़ेसे बड़े शत्रु ये हैं। किसकी शक्ति है कि इन्हें जीत सके? एक वीतरागने इन अनादिकालके शत्रु राग, द्वेष, मोहकी चोटी पकड़कर खींचा है, चूर चूर कर दिया है। धन्य है उन अरिहंत वीतरागको! "क्षण क्षण करते अनंतकाल बीत गया, फिर भी सिद्धि नहीं हुई।" । तो अब कर्म न बँधे उसके लिये क्या करें? ज्ञानीसे ऐसी कौनसी चाबी मिली है कि जिससे कर्मबंध न हो? 'सम्मद्दिट्ठी न करेइ पावं'। चिंतामणि जैसी यह मनुष्य देह मिली है, इसमें चाहे जो किया जा सकता है। कोई एक भेदी मिलना चाहिये। उसके द्वारा समझ आनी चाहिये । 'ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमें करे कोटि कर्मका छेद ।' 'समयं गोयम मा पमाए'-समय मात्रका प्रमाद कर्तव्य नहीं है। जीव नींदमें है, जिससे कर्म बँधते हैं। जाग जाये तो कर्म नहीं बँधते । “हे जीव! प्रमाद छोड़कर जाग्रत हो, जाग्रत हो, नहीं तो रत्नचिंतामणि जैसी यह मनुष्यदेह निष्फल जायेगी।" । ____ कर्म न बँधे इसका उपाय होगा न? जहाँ 'मैं' और 'मेरा' माना जाता है, वहाँ कर्म बँधते हैं। जिसको 'मैं' और 'मेरा' मिट गया है, उसे कर्मबंध नहीं होता। गुत्थी उलझ गई है उसे सुलझाना होगा। योग्यता नहीं है, अन्यथा आँख बंधकर खोलने जितने समयमें समकित होता है। पर सिंहनीका दूध मिट्टीके बरतनमें नहीं रह सकता, सोनेका पात्र चाहिये । अतः योग्यता प्राप्त करें।' योग्यता अर्थात् सदाचरणमें प्रवृत्ति। सत् शील और आत्मभावना ही सदाचरण है-यही पुरुषार्थ किया करें। चर्मचक्षुसे देखते हैं। उसे छोड़कर दिव्यचक्षु प्राप्त करें। 'जगत आत्मारूप देखनेमें आये'आत्मा पहले हो तो जगतमें यह सब देखा-जाना जाता है। आत्मा न हो तो ये सब मुर्दे हैं। उस आत्माको यथार्थमें तो, अनंतज्ञानी जो मोक्ष गये हैं, सिद्ध हुए हैं, उन्होंने जाना है। वैसा ही यथार्थ आत्मा ज्ञानी सद्गुरुने जाना है। वैसा ही सिद्ध समान शुद्ध आत्मा मेरा है, वही मेरा स्वरूप है। इसके सिवाय कुछ भी इस जगतमें मेरा नहीं है। यों 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवळज्ञान रे।' वृत्तिको क्षय करें। 'क्षण क्षण बदलती स्वभाववृत्ति नहीं चाहिये।' सबसे श्रेष्ठ उपाय भक्ति है, स्मरण है। श्रवण करना भी भक्ति है। चलते-फिरते, प्रत्येक काम करते स्मरण करना भी भक्ति है, आस्रवमें भी संवर होता है। क्रोधके समय भी आत्मा याद आयें, वादविवाद हो, तकरार हो, बीमार हो, रोग आये-सब समय ‘आत्मा है' यों आत्मा देखे तो काम बन जाय। सबको देखने और जाननेवाला, सबसे अलग ही अलग जो है वह आत्मा है। उसे मैंने नहीं जाना है, पर अनंत ज्ञानियोंने और सद्गुरुने जाना है वह मुझे मान्य है, ऐसा दृढ़ निश्चय करना चाहिये। "होत आसवा परिसवा, नहि इनमें संदेह; मात्र दृष्टिकी भूल है, भूल गये गत एह." यों चलते-फिरते आस्रवमें भी आत्माका स्मरण हो तो संवर होता है। ज्ञानीके पास ऐसी चाबी है कि वे प्रत्येक प्रसंगमें-चलते, फिरते, उठते, बैठते, पाँव रखते आत्माको देखते हैं। "जगत आत्मारूप देखनेमें आयें, जो हो उसे योग्य ही माननेमें आये।" रोग आये, मृत्यु आये तो भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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