SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशामृत कुत्तेको लाठी मारने पर फिर वे लौट कर नहीं आते, वैसे ही कर्मों पर ज्ञानीपुरुषके वचनरूपी लाठीका प्रहार हो तो जो कर्म आये हैं वे भाग जानेके लिये ही आये हैं, फिर लौटकर आनेवाले नहीं हैं । ३४८ ता. ९-१०-३४ 1 जीवको सत्संगका माहात्म्य नहीं लगा है, सामान्य बात हो गयी है । पहचान नहीं हुई है । कोई कहे कि अभी यहाँसे गये वे तो राजा थे। तब आश्चर्यचकित होकर पूछता है कि “हें! क्या राजा थे?" पीछेसे पश्चात्ताप करता है । वैसे ही जीवने ज्ञानी और सत्संगको यथार्थमें पहचाना नहीं है । पीछे पछताता है । सत्संग में क्या होता है ? जिन्होंने आत्माको जाना है, ऐसे आत्मामें रमण करनेवाले ज्ञानीके दर्शन या समागमका संयोग मिलता है । यह मिलना अति दुर्लभ है ! १ "एनुं स्वप्ने जो दर्शन पामे रे तेनुं मन न चढ़े बीजे भामे रे !' योग मिलने पर भी पहचान हो तभी अपूर्व भाव जाग्रत होते हैं । अपूर्व भाव आने पर ही कल्याण होता है । सत्संगमें आत्माके भाव विशुद्धताको प्राप्त होते हैं। 'आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे' । जीवने आत्मभावको जाना नहीं है । संकल्प - विकल्पने ही जीवका बुरा किया है । संकल्प-विकल्प द्वारा कर्मकी प्रकृतिका अनुसरण कर जीव कर्मके ढेर बाँध लेता है । सत्संगमें- शीतल शांत महात्माकी उपस्थितिमें-- आत्माका भाव, उपयोग संकल्प-विकल्पका त्याग कर ज्ञानीके वचनमें जुड़ता है, उसमें लीन होता है, जिससे कोटि कर्म क्षय होते हैं । आत्मा कैसी अपूर्व वस्तु है ! अन्य नाशवान पदार्थोंकी जितनी चिंता है, उतनी भी आत्मा लिये नहीं है । युगलिकका सुख, चक्रवर्तीका, इंद्रका, अहमिन्द्रका जो सुख है, उन सबसे अनंतगुना सुख सिद्धको एक समयमें है । सर्व आत्मा सिद्धके समान हैं, पर अपने सुखको प्राप्त करनेकी आकांक्षा कहाँ है ? विश्वास, श्रद्धा कहाँ है ? कितने अधिक पुण्य बढ़े तब मनुष्यभव मिला है ! उससे भी कितने अधिक पुण्य बढ़े तब सत्पुरुषका योग मिला है ! अब अवसर आया है, संयोग मिला है । जागृत हो जायें। प्रमादसे अनंत कमाई हार न जायें । आत्माको पहचाननेका पुरुषार्थ करें । दुर्लभ सत्संगको सफल बना लें । आत्माको पहचाननेके लिये गुरुगम चाहिये । दिव्यचक्षुसे आत्माकी पहचान होती है। इन चर्मचक्षुओंसे तो यह मोतीभाई, यह माणेकभाई, यह पुरुष, यह स्त्री, यह छोटा, यह बड़ा, यह बनिया, यह ब्राह्मण आदि दिखायी देते हैं । किन्तु दिव्यचक्षु प्राप्त होने पर यह सब जो दिखायी दे रहा है वह पुद्गल, जड़ भास्यमान होता है । उन्हें देखने-जाननेवाला आत्मा प्रत्यक्ष सबसे भिन्न सबसे प्रथम भासित होता है । १. भावार्थ - यदि कोई स्वप्नमें भी इसका (सद्गुरुका, आत्माका ) दर्शन पाता है तो उसका मन अन्य भ्रममें नहीं पड़ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy