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उपदेशसंग्रह-३
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ता.७-७३४ सब परमें परिणत होकर बैठे हैं। आत्मामें परिणतिसे ही मुक्ति है। उदासीनता–समता-रागद्वेषरहित परिणति आत्माकी है।
यह काला है, यह गोरा है, यह छोटा है, यह बड़ा है, यह शत्रु है, यह मित्र है-यह बाह्यदृष्टि है। उसे पलटाकर यह मेरा साक्षात् आत्मा, यह भी मेरा साक्षात् आत्मा, यों सबमें आत्माको कब देखेंगे?
ज्ञानीसे आत्माको देखनेकी दृष्टि प्राप्त हो तभी राग-द्वेष मिटते हैं।
जिस-तिसमें मैं और मेरापन हो गया है यही मिथ्यात्व है। कदाचित् कोई ऊपर-ऊपरसे ऐसा कह दे कि ये देहादि मेरे नहीं हैं, तो भी क्या यह जाना है कि मेरा क्या है? मेरा जो है उस आत्मस्वरूपको यथार्थ तो ज्ञानीने ही जाना है। अतः उस ज्ञानीकी श्रद्धासे आत्माको देखनेकी दृष्टि बनायें । दृष्टि विषमय है, उसे तत्त्वकी ओर करें।
ता. २९-७-३४ ज्ञानीसे जो द्रव्यसे भी शील अर्थात् ब्रह्मचर्य आया है, वह समकित होनेका कारण है। जिसके पास सत् और शील है उसे समकित अवश्य होगा। समकित न हो तब तक उसीके लिये झुरें। उसीकी इच्छा, वांछा रखें।
ता.३०-७३४ कषायका स्वरूप ज्ञानी ही जानते हैं। मृत्युके समय कषाय तूफान मचाते हैं, लेश्याको बिगाड़ते हैं। अतः प्रथम पाठ यही सीखना है कि 'धीरज' । ओहो! यह तो मैं जानता हूँ, ऐसा न करें; धैर्य, समता और क्षमा इन तीनोंका अभ्यास बढ़ायें। रोग या वेदनाको समतापूर्वक सहनेका अभ्यास करें।
मैंने तो आत्माको नहीं जाना है, पर पूर्वके अनंत ज्ञानियोंने उस आत्माको यथातथ्य जाना है। जिसकी शरणमें मैं हूँ उन ज्ञानी सद्गुरु भगवानने भी वैसे ही आत्माको यथातथ्य जाना है, वह मुझे भी मान्य है। वैसा ही सिद्धके समान मेरा आत्मा शुद्ध है। वही मेरा स्वरूप है। वही मुझे प्राप्त हो! ज्ञानीको जो है वह मुझे भी हो! इतनी बात अपूर्व है।
ता. १७९-३४ गुणानुरागी बनें। मुख्य यही करना है। आत्माको देखने पर ही गुणानुरागी बना जा सकता है। दृष्टि परिवर्तनसे ही यह संभव है।
“प्रभु, प्रभु लय लागी नहीं" हे जीव! क्या इच्छत हवे? है इच्छा दुःखमूल; जब इच्छाका नाश तब, मिटे अनादि भूल."
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