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________________ ३४२ उपदेशामृत सुरत, ता. ११-६-३४ मुमुक्षु-समकिती उदयको भोगता है। मिथ्यात्वी भी उदयको भोगता है। एक बँधता नहीं जबकि दूसरा बँधता है। सम्यग्दृष्टिके पास ऐसा क्या है कि वह बँधता नहीं? प्रभुश्री-सम्यग्दृष्टि ऐसे ज्ञानी गृहस्थ हों तो भी मुनि है। मिथ्यात्वी साधु हो तो भी संसारी है। १"उपर वेश अच्छो बन्यो, मांही मोह भरपूर जी।" यों ऊपरसे तो चारित्र धारणकर हजारों मनुष्योंको उपदेश आदि वाकचातुर्यसे प्रसन्न करता हो फिर भी कुगुरु है। समकिती कुछ बोलता भी न हो फिर भी मुनि है, ज्ञानी है। ऐसा समकितीके पास क्या है? समकितीका संग आत्मगुण प्रकट करनेवाला है। मिथ्यात्वी कुगुरुका संग, उपदेश आदि सब संसारवृद्धिके कारण हैं। अतः त्याज्य हैं। मायाशल्य, मिथ्यात्वशल्य और निदानशल्य-इन तीनोंमेंसे एक भी शल्य हो तब तक धर्म फलदायक नहीं होता; और कुगुरुमें तो तीनों ही शल्य होते हैं। ऊपरसे साधुका वेष हो और बाह्य चारित्र आदिसे जनरंजन कर साधु कहलाये तथा मान-पूजा आदिके लिये दिखाना कुछ-साधुत्व और भीतरसे प्रवृत्ति कुछ-विषयकषाय-मोहसे भरपूर, ऐसा हो तो वह मायाशल्य कहलाता है। अपने आत्माके लिये धर्म न करते हुए अंतरंग श्रद्धाके बिना जगतको ठगनेके लिये गुरुपना आदिकी अज्ञानक्रिया करना मायाशल्य है। धर्मकी आराधना करते हुए जीवको संसारफलकी इच्छा होती है, वह नियाण (निदान) शल्य है। विषयभोगकी इच्छासे, धनकी इच्छासे, पुत्रकी इच्छासे या स्वर्ग आदि सुखकी इच्छासे धर्ममें प्रवृत्ति करना निदान शल्य है। देहको आत्मा मानना, आत्माको देह मानना, स्वद्रव्य आत्माको परद्रव्य जड़ मानना, परद्रव्यको स्वद्रव्य मानना, ये सब मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत मान्यता है । वह काँटेके समान दुःख देनेवाला है। इसलिये उसे मिथ्यात्वशल्य कहते हैं। अतः इन तीनों शल्योंसे रहित होना है। हमने आत्माको जाना नहीं है। पर जिस सद्गुरुकी शरण ली है, उसने तो जड़-चेतनको यथार्थ जाना है-सद्गुरुदेवने यथार्थ आत्मस्वरूपको जाना है-अतः उनकी श्रद्धा भी समकित है। परमकृपालुदेव पर श्रद्धा करें। श्रद्धा ही आत्मा है। इतना मनुष्यभव प्राप्त कर एक सत्पुरुषको ढूँढकर उसकी सच्ची श्रद्धा हो जायेगी तो काम बन जायेगा। "अन्य कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमें सर्वभाव अर्पण करके प्रवृत्ति किये जा।" जिसने आत्माको जाना है ऐसे सद्गुरुकी जो श्रद्धा है वह समकित है। अतः अविचल श्रद्धा करें। सच्चेकी श्रद्धासे सत्यका फल प्राप्त होगा। मिथ्याकी श्रद्धासे वैसा फल प्राप्त होगा। १. अर्थ-बाहरसे वेश अच्छा धारण किया, किंतु अंदर भरपूर मोह है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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