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________________ उपदेशसंग्रह - ३ ३४१ ता. १८-३-३४ मनुष्यभव महा दुर्लभ है । उसमें पद अधिकार मिलना सुलभ है। नौकरी व्यापार सब प्रारब्धानुसार मिले हैं। पर यह सब तो छोड़कर एक दिन जाना पड़ेगा। अकेला धर्म साथमें चलेगा । आत्माका सच्चा धर्म क्या है ? इसका पता सत्संगसे लगता है । किसी संतसे आत्माके हितके लिये साधन - पाठ, वचन - मिला है उसका नित्य स्मरण करें । दस मिनिट लगते हैं । इतने समय तक अवश्य स्मरण करें । परमात्मा अरूपी है । उस अरूपी परमात्माकी पहचान वचनोंसे होती है । अतः संत द्वारा बताये गये साधन - मंत्र, क्षमापनाका पाठ आदि - को व्यर्थ न समझें। 'यह तो मैं जानता हूँ, यह तो मुझे कंठस्थ है' ऐसा लौकिक भाव न रखें। इसमें जो माहात्म्य रहा हुआ है वह कहा नहीं जा सकता, ज्ञानी ही जानते हैं । सौभाग्यभाईने वह साधन मुमुक्षुको देनेके लिये परमकृपालुदेवसे आज्ञा माँगी, तब वे चुप रहे । हमने पूछा तब हमें वह अन्यको देनेकी आज्ञा दे दी । अतः जो कोई जीव हमारे पास आता है, उसे वह साधन उसके आत्माका अनंत हित करनेवाला जानकर उसे देते हैं । अतः उसकी आराधना अलौकिक भावसे करनी चाहिये । अधिक समय मिले तो आलोचनाको नित्यक्रममें रखें। यदि वचन पर श्रद्धा होगी तो संगका फल अवश्य मिलेगा । ता. १७४-३४ ★ ✰✰ प्रभुश्री - जीव है तो शुद्ध, पर मदिराके छाकसे मत्त हो रहा है 1 मुमुक्षु - मदिरा पी ही क्यों ? प्रभुश्री - विभाव के कारण, अज्ञानके कारण । मुमुक्षु-विभावको दूर करनेके लिये क्या करें ? विभावको दूर करनेके लिये कुछ प्रदान करें । प्रभुश्री - ज्ञानीकी आज्ञा ही भवकूपमें डूबते प्राणीको तारनेके लिये रस्सीके समान है। उससे विभाव दूर होगा । मुमुक्षु - रस्सी तो मिली है, पर अब आप खींचे तब न ? प्रभुश्री - डूबनेवाले को भी पाँव टिकाने पड़ेंगे, जोर लगाना पड़ेगा । पुरुषार्थ करना होगा । मुमुक्षु - ज्ञान कैसे प्राप्त हो ? प्रभुश्री - त्रिकालमें भी ज्ञानीको ढूँढना पड़ेगा । सत्पुरुषको ढूँढकर उस पर श्रद्धा और उसकी आज्ञाका आराधन - ये दो करते रहें । विशेष करने जायेंगे, आत्मा देखने जायेंगे तो अपने आप कुछ भी जान नहीं पायेंगे । T Jain Education International सदाचार अर्थात् सत् और शील । सत् अर्थात् आत्मा, आत्माका विचार, बात, लक्ष्य । शील अर्थात् मुख्यतः ब्रह्मचर्य, उसका द्रव्यसे भी पालन हो तो बड़ी बात है । सत्य (ब्रह्मचर्य) तो सर्व परभावका त्याग है । सदाचारका तो पहले बहुत पालन किया । परंतु सद्गुरुकी आज्ञारूप रक्षक ( मार्गदर्शक) साथमें नहीं था, इसलिये काम बना नहीं । आज्ञासे सदाचार एकमात्र आत्मार्थकी इच्छासे होता है और स्वच्छंदसे तो वह पुण्य, स्वर्ग या कल्पित मोक्षकी इच्छासे होता है । अतः आज्ञासे ही काम बनता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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