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________________ ३४० उपदेशामृत भेदज्ञान द्वारा अंतरंगसे अपना मानना छोड़ दो। यहाँसे नीचे उतरते ही पुत्र-पिता, अच्छाबुरा, मेरा-तेरा आदि आरंभ हो जाता है। अतः भेद डालनेका अभ्यास करना चाहिये । बोध हो तो हो सकता है। कर्म अलग हैं और आत्मा अलग है। ऐसा भेद यथार्थ बोध प्राप्त होनेपर होता है। इतने भवमें मर गये हैं, ऐसा समझो। धोखा है, स्वप्न है 'आत्मा सत् जगत मिथ्या।' विषयके फल नरकादिके दुःख कडुवे हैं। विषय भोगनेके लिये यह देह नहीं मिली है। पुरुषार्थसे मनको जीतो। इच्छाका नाश करो। वासनाने ही बुरा किया है। ता. १८-३-३४ “सर्व दुःखसे और सर्व क्लेशसे मुक्त होनेका एकमात्र उपाय आत्मज्ञान है।" श्रीराम तीर्थयात्रा कर लौटे। सारा संसार त्रिविधतापसे जलता देखा। जहाँ देखो वहाँ आधि, व्याधि और उपाधि, जन्म, जरा और मरण, दुःख ही दुःख, इससे वे तो उदास हो गये। ऐसा वैराग्य हुआ कि न खाते, न पीते, कुछ भी अच्छा न लगता। मन कहीं भी न लगता । गुरु वसिष्ठ मुनि ज्ञानी थे। उनसे चित्तशांतिका उपाय पूछने लगे। गुरुने बोध द्वारा शांति करायी। __ सभी जीव अनंत कर्म वर्गणाके भारसे दुःखी हो रहे हैं। उनमें मुख्य आठ कर्म हैं। उनमें भी मुख्य मोहनीय है। उसे नष्ट करनेका अचूक उपाय बोध और वीतरागता–समता है। बोध सत्संग-सद्गुरुसे ही प्राप्त होता है। सत्संगमें एकमात्र आत्माकी ही बात होती है। सत्संगमें कोटि कर्मका क्षय होता है, हजारों भवका नाश हो जाता है, ऐसी अपूर्व कमाई सत्संगमें होती है। पर ज्ञानीके वचनका अलौकिक दृष्टिसे माहात्म्य समझमें आना चाहिये। विचार, विनय, विवेक और सत्संग ये चार आत्मज्ञान प्राप्त करवा सकते हैं। चारमेंसे एक हो तो चारों ही आते हैं। __स्त्रीको देखकर विकार होता है, परंतु स्त्रीको देखकर तो वैराग्य होना चाहिये । हड्डी, मांस, चमड़ा, लहू, पीप, विष्टा, मलमूत्रादिसे भरी हुई यह थैली है, ऐसा विचार, ऐसी दृष्टि हो तो वैराग्य होता है। सारा संसार एक स्त्रीसे मोहित हुआ है, पर विवेकी, विचारशीलको तो उससे वैराग्य होकर दृष्टि आत्मा पर जाती है। वह तो उसमें देह और आत्माकी भिन्नता देखता है। जो करोड़ों रुपये देने पर भी न मिले ऐसी यह मनुष्य देह है। इसमें राजपाट या करोड़ों रुपये मिलना सुलभ है। पर वे साथ नहीं जायेंगे, एक मात्र धर्म साथमें जानेवाला है। उसीके लिये यह मनुष्यभव बिताना चाहिये। जब तक समकित नहीं होता तब तक संसारके दुःख खड़े ही रहेंगे। जिसे समकित हुआ, उसका मनुष्यभव सफल हुआ। 'जहाँ आशा वहाँ वासा ।' अतः समकितकी ही आशा, इच्छा, अभिलाषा रखें। ___योग्यता प्राप्त करें। ज्ञानीके ज्ञानदानके द्वार अखंड खुले हुए हैं । जो भी आये उसे देनेके लिये ही बैठे हैं। परंतु लेनेवाला योग्यतायुक्त होना चाहिये । सद्गुरुकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि यह सबका मूल है। १. वासना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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