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उपदेशसंग्रह-३
३३९ संसारमें सुख है ऐसी मान्यता, तथा देह, स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य, रोग, शोक, क्लेश, क्रोध, मान आदि परमें मैं और मेरेपनकी श्रद्धा, मान्यता यह संसारकी श्रद्धा है, विपरीत श्रद्धा है।
उसे बदलकर 'छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश' ऐसी श्रद्धा हो वह परोक्ष श्रद्धा है। देह, स्त्री, पुत्र आदि मेरे नहीं, रोग आदि मुझे नहीं; मैं तो मात्र ज्ञाता द्रष्टा, देखने-जाननेवाला, सबसे भिन्न, अविनाशी, ज्ञानीने देखा, जाना, अनुभव किया वैसा आत्मा हूँ-यह परोक्ष श्रद्धा है।
प्रत्यक्ष श्रद्धावाला जीव किसी स्त्री, पुरुष या पदार्थको देखता है तो उसमें पहले आत्मा देखता है, फिर पर द्रव्य देखता है। जैसे, श्रेणिक वह आत्मा है, ऐसा पहले लक्ष्यमें रखकर, श्रेणिकराजा, चेलणा राणी, राजगृही नगरी आदिका वर्णन करते हैं। ___ परोक्षवाला पहले दृश्य पदार्थको देखता है। फिर विचारकर 'दृश्य और आत्मा भिन्न हैं। यों भिन्नता देखता है। जिसे प्रत्यक्ष आत्माका अनुभव हो उसे प्रत्यक्ष श्रद्धा है। इन दोनोंकी श्रद्धा सम्यग् श्रद्धा है।
परोक्ष श्रद्धावाला द्वारके बाहर खड़ा है, प्रत्यक्ष श्रद्धावाला अंदर प्रविष्ट हुआ है। परोक्षवाला पाँव बढ़ाये तो अंदर प्रत्यक्षमें प्रविष्ट होता है । परोक्षके अनेक भेद हैं। मात्र कहनेके परोक्षसे काम नहीं होगा। परोक्ष श्रद्धावालेकी रोग, वेदनीय आदि प्रसंगोंमें परीक्षा होती है। ऐसे प्रसंगोंमें परोक्ष श्रद्धा बलवान रहे और उपयोग जागृत रहे कि मैं इस वेदनीय आदिका मात्र ज्ञाता द्रष्टा हूँ, आकाश
और पातालमें जितना अंतर है, उतना ही रोगादिमें और मुझमें अंतर है, वे मेरे आत्मासे भिन्न हैं; ऐसा भेदज्ञान वहाँ बलवान हो तब परोक्षमेंसे प्रत्यक्ष श्रद्धामें आत्मा आता है।
ता. १२-३-३४ जितनी सावधानी व्यवहारके लिये रखी है, उससे अनंतगुनी सावधानी आत्माके लिये रखनी चाहिये । जप, तप, क्रिया अनंत की, किन्तु मोक्ष हो सके वैसा साधन नहीं किया। अपनी समझ पर शून्य बनाकर चौकड़ी मार दे। आत्माकी पहचान नहीं है, अतः उस विषयमें मैं एकदम मूर्ख हूँ, अजान हूँ, ऐसा मान। फिर सच्चे ज्ञानीने जो जाना है, देखा है, वह मुझे मान्य है, यों विश्वासप्रतीति रख और जो ज्ञानी बताये वह सदाचार पाल। सदाचारके पालन बिना मोक्ष होगा ऐसा त्रिकालमें भी मत मानना।।
सत्संग, सत्बोधकी आवश्यकता है। उससे भेदविज्ञान होगा। देह, स्त्री, सगे संबंधी, धनधान्य, पुत्र, मित्र कोई तेरे नहीं हैं। तू बनिया, ब्राह्मण, पटेल कुछ भी नहीं है। तू आत्मा है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनंत अक्षय निधि तेरे पास है।
१“तारूं तारी पास त्यां, बीजानुं शुं काम?
दाणे दाणा उपरे, खानारानुं नाम." __यों अंतरंगसे दृढ़ कर ले कि मेरा कुछ नहीं है, मेरा एक आत्मा है। सब धोखा है, स्वप्न है, ठगोंका नगर है। निश्चित जानें कि यह सब एक दिन छोड़ना ही पड़ेगा।
१. तेरा तेरे पास है अर्थात् रत्नत्रयरूप निधि तेरे पास है। वहाँ दूजेका क्या काम? दाने दाने पर खानेवालेका नाम है अर्थात् अपना प्रारब्ध कोई बदल नहीं सकता। अपना सुख-दुःख अपने पर ही निर्भर है।
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