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________________ ३३८ उपदेशामृत नहीं हुई है। पहचान हो तभी माहात्म्य लगता है। तभी काम होता है। 'जे लोकोत्तर देव नमुं लौकिकथी' ऐसा हो गया है। "जन्म मरण किसके है? जो तृष्णा रखता है उसके।" यह ज्ञानीके वचनोंका वाचन हो रहा है, विचार हो रहा है, वहाँ अपूर्व हित हो रहा है। पर माहात्म्य नहीं लगा है, जिससे अपूर्व भाव नहीं आते। सावधान हो जाना चाहिये । कालका भरोसा नहीं है। पक्षीका मेला है। घर, कुटुंब, धन, धान्यादि कुछ भी तुम्हारे नहीं है। सुई तक भी साथमें नहीं ले जा सकते। शरीर भी तुम्हारा नहीं है। आत्माको पहचान लेनेका अवसर आ गया है। देहादिके लिये जितनी चिंता रखते हैं, उससे अनंतगुणी चिंता आत्माके लिये रखनी चाहिये। यह (आश्रम) तीर्थक्षेत्र क्यों है? यहाँ आत्माकी ही बात होती है। सबसे पहले आवश्यकता किसकी है? श्रवणकी। 'सवणे नाणे विनाणे।' सुननेसे विज्ञान (विशेषज्ञान) प्राप्त होता है। सत्संगमें बोध सुननेको मिलता है। सत्संगमें अलौकिक भाव रखने चाहिये। जब लौकिक भाव हो जाते हैं तब अपूर्व हित नहीं हो सकता। ता. २४-२-३४ परोक्षमेंसे प्रत्यक्ष होगा। परोक्षमें से प्रत्यक्ष होते देर नहीं लगेगी। प्रत्यक्ष करनेपर ही छुटकारा है। मनुष्य देह चिंतामणि है। मरनेको तैयार हो जाओ। श्रद्धाको दृढ़ कर दो। चतुराईवाले और पंडिताईवाले किन्तु श्रद्धा-प्रतीतिसे रहित है वे रह जायेंगे और पीछे बैठे हुए भोले भाले अनपढ़ भी यदि श्रद्धाको दृढ़ कर लेंगे तो उनका काम हो जायेगा। परमकृपालुदेव द्वारा अनेक जीवोंका उद्धार होगा। ___निश्चयसे आत्माको देखें तो शुद्ध आत्मा ही दिखायी देता है। अर्थात् वहाँ कर्म नहीं है। निश्चयनयका अवलंबन छोड़ने पर कर्मबंध होता है। सत्संगमें अलौकिकभाव हों तो अवश्य कल्याण होता है। *** ता.६-३-३४ गुत्थी पड़ गयी है उसे सुलझाना चाहिये। दृष्टि विषयविकारवाली है। उसे बदलकर हड्डी, चमड़ी, माँस, पीप, लहू, मलमूत्र, विष्टा आदि तुच्छ पदार्थों से भरी देहकी मलिनता पर विचार किया जाय तो पुरुषार्थ आरंभ होता है। गुत्थी सुलझाना चाहते हैं पर अधिक बल नहीं चल पाता, अर्थात् वह पुरुषार्थ अखंड चालू नहीं रहता। वापस विषय-विकारमें बहने लगता है। वहीं गुत्थी सुलझनेकी अपेक्षा बल खाकर अधिक उलझने लगती है। पुरुषार्थ चालू रहे तो वैराग्यकी वृद्धि होकर गुत्थी सुलझ ही जाये। ता.७-३-३४ "सखा परम दुल्लहा' श्रद्धा दो प्रकारकी है : एक सम्यग् और दूसरी विपरीत श्रद्धा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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