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________________ उपदेशसंग्रह-३ कला है, वह मुझे बतायें। यदि नहीं बतायेंगे तो खाना-पीना, चलना-फिरना, बोलना चालना आदि सर्व प्रवृत्तियोंको मैं बंद कर दूंगा। ये श्वासोच्छ्वास भी अपने आप ही पूरे हो जायेंगे। अतः जिससे मुझे शांति हो, वह बतायें, तो वैसा करूँ।" क्या चाहिये? ऐसा वैराग्य चाहिये। जीवको अभी इसकी चिंता ही कहाँ हुई है? इच्छा ही कहाँ है? जीवने समागममें मान्यता की है। पर अभी वह मान्यता यथातथ्य सच्ची कहाँ है? क्या माना है? क्या मानना है ? यह मानना बहुत कठिन है। वैराग्य कैसे आये? पुरुषार्थसे । पुरुषार्थ करे तो वैराग्यको बुलाने नहीं जाना पड़ेगा। कोई जीव इतना सा एक ही वचन पकड़कर पुरुषार्थ किये जाय तो उसका काम बन जाय । पुरुषार्थ करें। जिन्होंने पुरुषार्थ किया है वे ही मोक्ष गये हैं। विषय-विकार लेकर कोई मोक्ष नहीं गया। इतने शेष भवमें चाहे देह त्याग हो जाय, चाहे जो हो जाय, पर यही करना है । भवस्थिति या अन्य कोई कल्पना नहीं करनी है। मुमुक्षु-क्या पुरुषार्थ करे? प्रभुश्री-पुरुषार्थ सत् और शील है। सत् अर्थात् आत्मा। आत्माके संबंधमें ही बात, विचार, लक्ष्य यह सत्, और शील अर्थात् ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्यका यथार्थ स्वरूप तो ज्ञानीने ही जाना है, पर यदि द्रव्यसे भी पाला जायेगा तो वह महान लाभका कारण है। मन, वचन, कायासे पाले। पालनेवाला नहीं जानता, पर नियम दिलानेवाला सच्चा ज्ञानी है, वह जानता है। अतः सुप्रत्याख्यान होनेसे काम हुए बिना नहीं रहेगा। ज्ञानीके वचनोंमें आगम समा जायें ऐसा परमार्थ होता है। अतः जीव ज्ञानीका एक भी वचन पकड़कर प्रवृत्ति किये जायेगा तो उसका कल्याण होगा। छोड़ना पड़ेगा। त्याग-वैराग्य तो चाहिये ही। छोड़े बिना कोई मोक्ष नहीं गया। कल्पनाएँ, मान्यताएँ छोड़नी पड़ेगी। चक्रवर्ती वचन बोले, वासुदेव वचन बोले या कोई राजा वचन बोले वे उन सबके पुण्यानुसार मान्य किये जाते हैं-महत्त्वके लगते हैं, समान नहीं गिने जाते । तब ज्ञानीके वचन तो उससे भी अधिक अपूर्व माहात्म्यवाले हैं। उनका माहात्म्य नहीं लगा है। प्रत्यक्ष पुरुषका सामान्यपना हो गया है। कल्पना होती है कि कुछ तीर्थंकरके वचन हैं? किसी गणधरके हैं ? पर इसका पता नही हैं; सब कुछ है । गणधर कौन? तीर्थंकर कौन? आत्मा क्या? यह जाना है? ता. २३-२-३४ वैराग्यके निमित्तसे वैराग्य होता है। सत्संग वैराग्यका निमित्त है। विषय विकारके निमित्तसे वैराग्य नहीं होता, पर विकार होता है। यहाँ सत्संगमें ज्ञानीपुरुषके वचनोंका वाचन होता है, विचार होता है, तब क्या होता है? भव कट जाते हैं, हजारों भव नष्ट हो जाते हैं। जीवको माहात्म्य नहीं लगा है। लौकिकभाव कर डाला है। सामान्यता हो गई है। पहचान Jain Education R onal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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