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________________ उपदेशामृत योग्य है। वही मुझे प्राप्त करने योग्य है, चाहने योग्य है, अनुभव करने योग्य है, उसीमें तल्लीनता करना योग्य है। ऐसी श्रद्धापूर्वक जिसे मान्यता हो गयी है वह प्रत्येक प्रसंगमें-सुखमें, दुःखमें, आधिमें, व्याधिमें या संकल्प-विकल्पमें एक आत्मभावनामें ही रह सकता है, अपना और परका भेद कर सकता है। "जड ने चैतन्य बन्ने द्रव्यनो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीतपणे बन्ने जेने समजाय छे; स्वरूप चेतन निज, जड छे संबंध मात्र, अथवा ते ज्ञेय पण परद्रव्यमांय छे." जिसको ऐसी श्रद्धापूर्वक मान्यता निरंतर रहती है और परोक्ष आत्मभावनामें जागृत रहता है, उसे सर्व व्रत, नियम आदि आ जाते हैं। उसे कषायादि सर्व जो कुछ आता है वह छूटनेके लिये ही आता है। . "श्री तीर्थंकरादिने बार-बार जीवोंको उपदेश दिया है; परंतु जीव दिग्मूढ़ रहना चाहता है, वहाँ उपाय नहीं चल सकता । पुनः पुनः ठोक-ठोककर कहा है कि एक यह जीव समझ ले तो सहज मोक्ष है, नहीं तो अनंत उपायोंसे भी नहीं हैं। और यह समझना भी कुछ विकट नहीं है, क्योंकि जीवका जो सहज स्वरूप है वही मात्र समझना है; और वह कुछ दूसरेके स्वरूपकी बात नहीं है कि कदाचित् वह छिपा ले या न बताये कि जिससे समझमें न आवें। अपनेसे आप गुप्त रहना किस तरह हो सकता है? परंतु स्वप्नदशामें जैसे न होने योग्य ऐसी अपनी मृत्युको भी जीव देखता है, वैसे ही अज्ञानदशारूप स्वप्नरूप योगसे यह जीव अपनेको, जो अपने नहीं है ऐसे दूसरे द्रव्योंमें निजरूपसे मानता है; और यही मान्यता संसार है, यही अज्ञान है, नरकादि गतिका हेतु यही है, यही जन्म है, मरण है, और यही देह है, देहका विकार है, यही पुत्र है, यही पिता, यही शत्रु, यही मित्रादि भावकल्पनाका हेतु है; और जहाँ उसकी निवृत्ति हुई वहाँ सहज मोक्ष है; और इसी निवृत्तिके लिये सत्संग, सत्पुरुष आदि साधन कहे हैं; और वे साधन भी, यदि जीव अपने पुरुषार्थको छिपाये बिना उनमें लगाये तभी सिद्ध होते हैं। अधिक क्या कहे? इतनी संक्षिप्त बात यदि जीवमें परिणमित हो जाये तो वह सर्व व्रत, यम, नियम, जप, यात्रा, भक्ति, शास्त्रज्ञान आदि कर चुका, इसमें कुछ संशय नहीं है।" (५३७). फाल्गुन सुदी ९,सं. १९९० ता. २२-२-३४ जीवको करने योग्य क्या है? बुरा किया हो तो वह प्रेम-प्यार है, उसीने किया है। उस प्रेमको संसारमें जहाँ-तहाँ बिखेर दिया है। वहाँसे वापस लौटाकर किसी एक ही स्थान पर-ज्ञानीमें करना योग्य है। __ वैराग्यको बढ़ाना उचित है। रामचंद्रजीने वसिष्ठगुरुसे कहा कि-"यह संसार, भोग आदि सर्व पदार्थ जो त्रिविध तापके कारण हैं, उनसे मेरे मनको शांति प्राप्त नहीं होती। वे सर्व जन्म-मरण आदि दुःखके कारण हैं। आप निरंतर सत्शांतिमें रहते हैं, अतः आपके पास शांतिमें रहनेकी कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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