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________________ [३८] हम भी दूसरोंकी भाँति मताग्रहमें फंसे हुए हैं। मन, वचन और कायासे ममत्वके त्यागकी प्रतिज्ञा करनेपर भी अपने मतका मिथ्या आग्रह इतनी अधिक जड़ डाल चुका था कि एक शुद्ध गृहस्थी जो धर्मज्ञानकी आवश्यकतासे अनजान हो वह भी अपने परिग्रहमें इतना अधिक ममत्व नहीं रखता होगा। जहाँ धर्मगुरुओंकी ऐसी स्थिति हो वहाँ लोक-कल्याणकी क्या आशा की जा सकती है? ऐसी अज्ञानदशामें आत्मकल्याणका मार्ग निःस्पृहता है, ऐसा हमें भान करानेवाली वह पवित्र मूर्ति थी। हम मताग्रहसे अपने आत्माके अहितका कार्य करते जा रहे हैं ऐसा उस महात्माने हमें समझाया था। और इसीलिए हम दूसरोंकी भाँति जहाँ अपनापन मान बैठे थे वहाँ अपने आत्माका अहित कर रहे थे, ऐसा हमें कुछ समझमें आया हो ऐसा लगता है। हमें उस महान पवित्र आत्माके सत्समागमका जो अपूर्व लाभ मिला था उससे हमें यह निःसंदेह लगता था कि श्री महावीर द्वारा प्रतिपादित मार्गका उद्धार करनेवाला पुरुष यदि कोई है तो वह यही है। यह निःसंशय है कि यदि उस महात्माका आयुष्य विशेष होता तो छोटे-छोटे मतमतान्तर तो अवश्य दूर होते । इतना ही नहीं, श्वेताम्बर और दिगम्बर मार्गके सूक्ष्म विचारान्तर भी दूर हो जाते और श्री महावीरने जिस प्रकार वीतराग मार्गका प्रचार किया था वैसा ही इस महात्मासे होनेवाला था। परंतु अब वे सभी आशाएँ व्यर्थ हो गयी है। और कितना अज्ञान बढ़ेगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उन महात्माके अनुयायियोंको, अन्य कुछ नहीं तो इतना तो अवश्य करना चाहिये कि उनके उपदेशका अनसरण किया जा सके उसके लिए एक ज्ञानमंदिरकी र एक ज्ञानमंदिरकी स्थापना करें। उस ज्ञानमंदिरकी ऐसी योजना होनी चाहिए कि उनके अनुयायियोंका सद्व्यवहार जनसमूहको दृष्टांतरूप हो सके।" उपरोक्त लेखके पीछे जो सूझ काम कर रही थी उसे समझनेके लिए श्रीमद्जीका नीचेका लेख उपयोगी सिद्ध होगा ___ “यदि मूलमार्गको प्रकाशमें लाना हो तो प्रकाशमें लानेवालेको सर्वसंगपरित्याग करना योग्य है, क्योंकि उससे यथार्थ समर्थ उपकार होनेका समय आता है...यदि सचमुच उपदेशक पुरुषका योग बने तो बहुतसे जीव मूलमार्ग प्राप्त कर सकते हैं...किन्तु नजर दौड़ानेसे वैसा पुरुष ध्यानमें नहीं आता, इसलिये लिखनेवालेकी ओर ही कुछ नजर जाती है...सर्वसंगपरित्यागादि हो तो हजारों मनुष्य मूलमार्गको प्राप्त करें, और हजारों मनुष्य उस सन्मार्गका आराधन करके सद्गतिको प्राप्त करें, ऐसा हमारे द्वारा होना सम्भव है...धर्म स्थापित करनेका मान बड़ा है; उसकी स्पृहासे भी कदाचित् ऐसी वृत्ति रहती हो, परंतु आत्माको बहुत बार कसकर देखनेसे उसकी सम्भावना वर्तमान दशामें कम ही दीखती है; और किंचित् सत्तामें रही होगी तो वह क्षीण हो जायेगी ऐसा अवश्य भासित होता है, क्योंकि यथायोग्यताके बिना, देह छूट जानेकी दृढ़ कल्पना हो तो भी, मार्गका उपदेश नहीं करना, ऐसा आत्मनिश्चय नित्य रहता है...मेरे मनमें ऐसा रहता है कि वेदोक्त धर्म प्रकाशित या स्थापित करना हो तो मेरी दशा यथायोग्य है, परंतु जिनोक्त धर्म स्थापित करना हो तो अभी तक उतनी योग्यता नहीं है, फिर भी विशेष योग्यता है, ऐसा लगता है।" ['श्रीमद् राजचंद्र' अंक ७०८ सम्पूर्ण विचारणीय] "उन्नतिके साधनोंकी स्मृति करता हूँबोधबीजके स्वरूपका निरूपण मूलमार्गके अनुसार स्थान स्थान पर हो! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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