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________________ [३९] स्थान-स्थानपर मतभेदसे कुछ भी कल्याण नहीं है यह बात फैले। प्रत्यक्ष सद्गुरुकी आज्ञासे धर्म है यह बात ध्यानमें आये। द्रव्यानुयोग-आत्मविद्याका प्रकाश हो। त्यागवैराग्यकी विशेषतापूर्वक साधुगण विचरें। नवतत्त्वप्रकाश साधुधर्मप्रकाश श्रावकधर्मप्रकाश विचार। अनेक जीवोंको प्राप्ति।" (अंक ७०९) श्रीमद्जीकी विद्यमानतामें उनके दर्शन-समागमकी भावनासे श्री लल्लजी स्वामी नडियाद, आणंद, अहमदाबाद, नरोडा आदि स्थानोंमें विहार करते थे और समाचार मिलनेपर स्टेशनके गाँवमें जा पहुँचते थे, और श्रीमद्जी मुंबई या काठियावाड जाते होते तो दर्शन, समागमका लाभ लेना नहीं चूकते थे; परंतु अब वैसा बलवान कारण रहा नहीं था और स्वयंको पहाड़ और जंगल प्रिय होनेसे एकान्तमें आत्मसाधना विशेष हो सकेगी यह सोचकर धर्मपुरके जंगलोंको पार कर उन्होंने दक्षिण देशकी ओर विहार किया। साधुओंमेंसे मात्र मोहनलालजीको साथ रखा था। वे जहाँ जाते वहाँ उपाश्रयमें कोई आता तो उसके साथ धर्मकी बात करते और स्वयं अधिकांश समय जंगलमें ही बिताते, आहारके समय ही गाँवमें आते । ____ एक दिन जंगलमें बहुत दूर चले गये। इतनेमें सौ-दोसौ भील उनके आसपास दूर दूर हथियार तीर-कमान आदिसे सज्ज होकर उनको घेरकर खड़े हो गये। सब उनको घेरकर क्यों खड़े हैं यह उनकी समझमें नहीं आया। अतः वे निर्भयतासे उनके पास गये और पूछा, "भाई, सब इकडे क्यों हुए हो?" एकने कहा, “तुम सरकारी आदमी हो और लड़ाईमें भरती करनेके लिए हमें पकड़ने आये हो, अतः हम तुम्हें पकड़ लेंगे।" उन्होंने पासके गाँवका नाम और जिनके यहाँ ठहरे हुए थे उस बनियेका नाम बताया और कहा, "हम तो संत-साधु हैं। तुम्हें विश्वास न हो तो हमारे साथ आओ। हम तो भगवानकी भक्तिके लिए जंगलमें आते हैं, आज कुछ दूर आ गये हैं। तुम्हें हमसे भयभीत होनेकी आवश्यकता नहीं। हम सरकारी आदमी नहीं हैं।" इस सरल स्पष्टीकरणसे सब समझ गये और वापस चले गये। फिर लम्बा-लम्बा विहार करके दक्षिणके करमाला गाँवमें गये और सं.१९५८का चातुर्मास वहीं किया। उस देशमें जो गुजराती और मारवाडी लोग थे वे उनके समागममें आते थे। उनसे वे निष्पक्षतासे धर्मकी बात करते, जो उन्हें बहुत रुचिकर लगी। बादमें बहुत बार श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगासमें वे उस प्रदेशकी बात करते और कहते कि वहाँके लोग बहुत भाविक और उत्साहवाले थे और वहाँ अधिक समय हमारा विचरना हुआ होता तो श्रीमद् राजचंद्र आश्रम अगासमें बना है वैसा वहीं बन जाता। श्री देवकरणजी आदि चरोतरमें विचरण कर रहे थे। उस अरसेमें भादरणमें श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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