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________________ [३७] स्थित्यान्तर होकर श्वेताम्बर और दिगम्बर दो भेद हुए। यह सच है कि अमुक विचारोंमें परिवर्तन हुआ था, किन्तु दोनों पक्षोंमें इतना अधिक भेदभाव हो जानेका कारण यों लगता है कि दोनों पक्षोंकी स्थिति भिन्न-भिन्न प्रकारके राज्यतंत्र और स्थानमें हुई थी और उसके कारण दोनों पक्ष जिन संयोगोंमें आ गये थे उन संयोगोंके अनुसार रहनेके नियमादिमें परिवर्तन किया। बहुत समय बीतनेके बाद तो ऐसी दशा, कालस्थिति हो गयी कि श्वेताम्बर और दिगम्बर मतानुयायी लम्बे समयतक एक-दूसरेसे मिल भी न सके । बीच-बीचमें दोनों पक्षोंके अन्दर महातत्त्वज्ञ पुरुष हो गये। यद्यपि उन्हें दोनों पक्षोंके कुछ भिन्न विचारोंका निर्णय करनेका योग ही नहीं मिला था क्योंकि दोनों पक्षके तत्त्ववेत्ताओंपर गम्भीर सेवा करनेकी जिम्मेवारी थी और वह यह कि ज्ञानके अभावके कारण अपने-अपने पक्षकी जो अधम स्थिति हो गयी थी उसे सुधारकर योग्य स्थितिमें प्रस्थापित करनेका काम उन्हें करना पड़ता था। उदाहरणस्वरूप हरिभद्रसूरिका समय लें। जिस समय ये महान् आचार्य हुए उस समय लोगोंकी ऐसी अव्यवस्थित स्थिति हो गयी थी कि उसे सुधारनेका काम उन्हें हाथमें लेना पड़ा; और उस कामको सम्पूर्ण करनेमें जो श्रम और समय उन्हें लगाना पड़ा वह इतना अधिक विस्तीर्ण था कि श्वेताम्बर और दिगम्बर पक्षके विचारोंमें जो अन्तर दिखायी देता था उसपर दोनोंको साथ मिलकर, विचारकर, उसका निर्णय कर पुनः परिवर्तन करनेका समय ही उनके पास नहीं बचा था। इसलिए श्वेताम्बर पक्षकी ही स्थितिको सुधारते हुए जो महालाभका कारण था वही उन्होंने किया। इसी प्रकार दिगम्बर तत्त्वज्ञ पुरुषोंको भी करना पड़ा। इन्हीं कारणोंसे दोनों पक्षके विचारोंमें जो अन्तर था वह ज्योंका त्यों रह गया। उसके बाद हेमचन्द्राचार्यका समय लें। उनके लिए भी अपने पक्षकी अव्यवस्थित स्थितिको सुधारनेका काम तैयार था। अतः दिगम्बर पक्षके साथ निर्णय करनेका काम उनसे भी नहीं हो सका। इसी प्रकारकी अन्य महापुरुषोंकी भी स्थिति हुई लगती है। छोटे भिन्न-भिन्न मतमतान्तर इतने अधिक बढ़ गये कि कितने ही बड़े आचार्यके लिए भी मतमतान्तर दूर करनेका काम बहुत कठिन था। फिर भी उन्होंने यथासम्भव प्रयास किया। हेमचंद्राचार्यके बादका समय इतना अधिक अव्यवस्थित हो गया कि उस अव्यवस्थाने मात्र मतमतान्तर उत्पन्न करनेका ही काम किया। इस प्रकार इन दो मुख्य पक्षोंके विचारान्तरका समाधान करनेका काम बाकी ही रह गया। वर्तमान राज्यतंत्र स्थायी होनेसे, इस समय यदि कोई महात्मा हों तो उनके लिए यह कठिनाई कम हुई थी, यद्यपि दूसरी ओर बहुत छोटेछोटे मतमतान्तर बढ़ गये थे जिससे मताग्रहके कारण जमी उस बहुत गहरी जड़को उखाड़नेका काम उतना ही कठिन हो गया था, फिर भी इस कठिनाईको सरल करनेके लिए अभी जिनका देहावसान हुआ है वे एक महात्मा उत्पन्न हुए थे। ऐसा लगता था कि उन पवित्रात्माका जिनमार्गके सूर्यके रूपमें उदय हुआ है। उन्होंने स्वयं सर्व दर्शनका सूक्ष्म अभ्यास कर आत्मतत्त्वके सम्बन्धमें विचारोंका सत्त्व निकाला था। उनके मनमें न जिनमार्ग अपना था और न वेदान्तमार्ग अपना था। जो मार्ग वीतरागदशाका भान कराता हो वही मार्ग आत्माका कल्याण करनेवाला है, ऐसा उनका उपदेश था। महान आक्षेप सहन करनेके बाद लोग यह जानने लगे थे कि वे एक निष्पक्षपाती मतमतान्तररहित निर्मल आत्ममार्गके उपदेष्टा हैं। शुद्ध वीतराग आत्ममार्गकी दशाका भान करानेवाले वे ही पुरुष हैं ऐसी प्रतीति लोगोंको होने लगी थी, परंतु खेद! वह उदयमान सूर्य अस्त हो गया। उनका वर्तमान आयुष्यकर्म पूर्ण हुआ। परिणाम, वीतरागमार्गका उद्योत होता रुक गया! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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