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उपदेशसंग्रह-२
३२९ कहनेका तात्पर्य यह कि ऐसा पापकर्म करनेवालेको भी अंतमें मरते-मरते भी जो श्रद्धा थी तदनुसार स्मरण करनेका सूझा । अतः जो पहलेसे ही पुरुषार्थ किया होगा वह अंतमें काम आयेगा ।
दूसरे, जीव क्षण क्षण मर रहा है। 'क्षण क्षण भयंकर भावमरणे का अहो! राची रहो?' भगवानने कहा है कि 'समयं गोयम मा पमाए।' अतः क्षण क्षण मृत्युको याद करते रहना चाहिये। यदि ऐसी मृत्युकी तैयारी कर रखी होगी तो काम आयेगी, अंत समयमें आकर उपस्थित हो जायेगी। हमें कृपालुदेवने भी सं.१९५१के वर्षमें पत्र लिखा था कि मृत्युके पहले तैयारी कर लेनी चाहिये और मृत्युके समय तो अवश्य वैसा करना चाहिये । कर्मकी गति विचित्र है! श्रेणिक राजा और कृष्ण महाराज भी क्षायिक समकितके धारक थे तथा मृत्युके समय भी, भगवानका कथन अन्यथा नहीं हो सकता ऐसा मानते थे। मारनेवाले जराकुमारको श्रीकृष्णने कहा-"जा, चला जा, नहीं तो बलदेव आकर तुझे मार डालेगा।" पर उसके दूर जाते ही लेश्या बदली, विचार आया कि अनेक संग्रामोंमें जो अविजित रहा उसे मारकर शत्रु यों ही जा रहा है! ऐसा विचार आया। गतिके अनुसार मति हुई या मतिके अनुसार गति हुई, कुछ भी कहो। पूर्वकालमें नरकका आयुष्य बँध चुका था जिससे वैसी लेश्या आकर खड़ी हो गई। ___ कहना तो न चाहिये, पर समझनेके लिये कहता हूँ। हम यहाँ पाट पर शामको सब दरवाजे बंद करके बैठते हैं। सोचते हैं मानो मर गये थे, धर्मके सिवाय अब कोई बात नहीं करनी है। जब तक उस विचारका बल चलता है तब तक थोड़ी देर तो निर्विघ्न रहा जाता है पर थोड़ी देर बाद गोला आकर धडाकसे गिरता है! और होता है कि अरे! तुझे किसने बुलाया था? पर सद्गुरुशरणसे उसे विघ्नकर्ता जानकर दूर कर देते हैं, अन्यथा उसी विचारमें बहकर प्रसन्नचंद्र राजर्षिकी भाँति जीव कहाँसे कहाँ पहुँच जाता है!
पूर्वबद्ध कर्म हमें या इन्हें सबको (उदयमें) आये बिना नहीं रहेंगे। जो अध्यास हो गया है उसमें पुरुषार्थ करने पर कमी आती है और दूसरा हो जाता है। अच्छे या बुरे कर्म, साता या असाता धूप-छाँवकी तरह आयेंगे ही। पर पुण्य या पाप किसीकी आवश्यकता नहीं है ऐसा मानें। समकिती पुण्यक्रिया करता है मगर इष्ट समझकर नहीं करता। किसी राजाने हजार रुपयेका दंड किया हो फिर भी यदि वह पचास रुपये देनेसे निबटता हो तो प्रसन्न होनेकी बात है, पर दंड कुछ इष्ट वस्तु नहीं है। वैसे ही समकिती पुण्यक्रियामें, भक्तिमें उल्लास रखता है, फिर भी वह क्रिया भी अंतमें छोड़नी है ऐसा मानता है, शुभ बंधका कारण मानता है। इष्ट तो मोक्षका भाव ही है।
आश्विन, सं. १९८५ दीवाली पर *तीन दिनमें १०८ माला फेरनी चाहिये। एक साथ १०८ फेरनी हों तो वैसा करें-तीन प्रहर जाग कर करें। वैसा न कर सकें तो पक्खीके दिन अर्थात् चतुर्दशीके दिन ३ माला 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' मंत्रकी, २८ माला ‘परमगुरु निग्रंथ सर्वज्ञदेव' मंत्रकी और ५ माला
* सं. १९८६ में प .पू. प्रभुश्रीजीने तीनके बदले चार दिन अर्थात् तेरस, चौदस, दीवाली और प्रतिपदाकी रातको छत्तीस-छत्तीस मालाएँ फेरनेका क्रम बताया था।
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