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________________ ३२८ उपदेशामृत आया है, अतः प्रभु! मृत्यु बार बार याद आती है। यद्यपि गुरुकृपासे मृत्युका भय नहीं है, खेद नहीं है या आर्तध्यानका कारण नहीं है। शरीरका स्वभाव तो सड़ना, गलना और विनष्ट होना है। उसमें पर्यायदृष्टि रखकर यह जीव 'मेरा मेरा' कर बँधा हुआ है। वैसे तो गुरुकृपासे संसार, स्त्रीबच्चे, धन, व्यापार आदि तो सहज ही छूट गया है, किन्तु सर्व प्रकारसे असंग 'तेवो स्थिर स्वभाव ते ऊपजे रे' ऐसा बननेकी आवश्यकता है। पर उसके लिये आवश्यक सामग्री कहाँ है? अतः जाग्रत रहनेकी आवश्यकता है। निमित्त अच्छा बनायें । यहाँ आये तो पुण्ययोगसे कुछ बात कानमें पड़ी । लाखों रुपयोंका यह धन हैं। मनुष्यभव मिलना महा दुर्लभ है। भले ही वह रोगी हो, अशक्त हो, स्त्री हो, पुरुष हो, पर यदि मनुष्यभव हो तो समझा जा सकता है। महाभाग्यके उदयसे सत्पुरुषका योग मिलता है। एकदेशी(सत्संगी)का योग भी कहाँसे मिले! अभी पुराणका वाचन हो रहा है, इसमें यही बात बारंबार आती है कि किसी सत्पुरुषका योग मिला और जीवकी दिशा बदल गयी। जैसे कहींकी हवा अच्छी हो तो रोग मिट जाता है और किसी किसी स्थानकी हवासे रोग फूट निकलता है, वैसी ही सत्पुरुषके योगबलकी बात है। भरतका जीव सिंह था तब उसे जातिस्मरण हुआ था किसी चारण मुनिके प्रतापसे! दूसरे चार जीव भरतके भाई होनेवाले थे-बंदर, सूअर, बाघ और नेवला-वे भी जातिस्मरणज्ञानको प्राप्त हुए, वह भी मुनियुगलका प्रभाव! महावीर स्वामीके जीवको भी सिंहके भवमें सम्यक्त्व हुआ, वह दो चारण मुनियोंकी कृपासे! यों स्थान-स्थान पर जीवका महापुरुषोंके योगसे कल्याण हुआ है। क्रोधसे क्या क्या होता है तथा पुण्यके योगसे क्या क्या होता है-वह इस ‘उत्तरपुराण में चंदनाके जीवकी पूर्वभवकी कथामें आता है। मृत्युके दुःखके समय परिणाम स्थिर रखें, जागृति रखें। ___मुनि मोहन०-प्रभु! मृत्युके समय किसी जीवको ध्यान रहे और किसीको न भी रहे, पर उस समय क्या अवश्य कर लेना चाहिये? किस वस्तुमें उपयोगको जोड़ना चाहिये? क्या लक्ष्य रखना चाहिये? प्रभुश्री–प्रश्न बहुत अच्छा किया है। सत्य बात तो ज्ञानी जानते हैं, पर हमारी बुद्धिमें जो आता है उस पर विचार करनेके लिये इस बातको ध्यानमें लेवें। ____ अभी जिसका वाचन चल रहा है, उसमें एक बात है। एक विद्याधरने राक्षसविद्या साधकर एक द्वीपका पूरा गाँव उजाड़ दिया। वहाँ तीन वणिकपुत्र जहाजको लेकर आ पहुँचे। उनमेंसे एक शहरमें गया पर उसे कोई मिला नहीं, मात्र एक राजकुमारी मिली । उससे उसने सब बात जानी। उसने वहाँ पड़ी एक तलवार उठायी और जब वह राक्षसी विद्याधर आया तब तलवारसे उसे मार डाला। मरते-मरते वह नवकारमंत्र बोला, जिससे उस श्रावकपुत्रको पछतावा हुआ कि मैंने अपने धर्मबंधकी ही हत्या कर दी। उसने उससे क्षमा माँगी। उसने कहा कि क्रोधके वश होकर मैंने पूरा नगर उजाड़ दिया, पर मैं श्रावक हूँ। क्रोधके फल बुरे होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है वह सच है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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