________________
३३०
उपदेशामृत 'आतम भावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे' मंत्रकी यों ३६ माला फेरनी चाहिये। इतनी ही (३६) माला दीवालीके दिन शामको और ३६ प्रतिपदाकी शामको। यों १०८ माला तीन दिनमें फेरें।
इन छत्तीस माला तक भी यदि कोई सामायिककी तरह स्थिरतासे न बैठ सके तो सुबह-शाम मिला कर ३६ माला फेर लें। यों १०८ माला मात्र समाधिमरणकी इच्छासे फेरें । किसी भी प्रकारकी इस लोक-परलोककी इच्छा-निदान न करें, तीनों दिन यथाशक्ति तप करें। उपवास, एकासन या नीरस आहारसे चलावें तथा ब्रह्मचर्यका पालन करें। तीनों दिन शुभभावनामें बितायें तो वह समाधिमरणकी तैयारी है।
__ 'जैन व्रत कथा में जैसे अनेक दुःखी लोगोंने दुःखसे छूटनेके उपाय पूछे हैं और साधु मुनियों द्वारा बताये गये व्रतसे लाभान्वित हो कर जैसे कल्याण प्राप्त किया है, वैसे ही यह व्रत भी वैसा ही है। प्रतिदिन-तीनों ही दिन 'आत्मसिद्धि' आदिका नित्यक्रम भी चालू रखें।
अषाढ़ वदी ३०, मंगल, सं.१९८८, ता.२-८-३२ आत्मा उपयोगस्वरूप है। उपयोग सदा ही, निरंतर है। इस उपयोग पर भी उपयोग रखना है। सूर्य-चंद्र बादलमें छिप जाने पर दिखायी नहीं देते, पर वे हैं ऐसी प्रतीति है; इसी प्रकार शुद्ध स्वरूप है, यह प्रतीति भूलने योग्य नहीं है। उपयोग छूट जाता है यह भूल महावीर स्वामीने देखी। इसे उन्होंने स्थान-स्थान पर आगमोंमें उपदिष्ट किया है। यही सब भूलोंकी बीजभूत भूल है।
कार्तिक सुदी ४,सं.१९८९ समभाव! 'कडेमाणे कडे !' सम्यक्त्वके पहले भी समभावकी प्राप्तिके लिये समभाव रखनेका अभ्यास करनेसे तद्रूप हुआ जा सकता है, उसका अभ्यासके समयके समभावका-वैसा फल । पर ज्ञानीकी कृपासे भावसमताकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थकी आवश्यकता है। यह भूलने योग्य नहीं है।
कार्तिक सुदी ११,सं.१९८९ "वस्तुस्वभाव विचारते, शरण आपकूँ आप; व्यवहारे पण परमगुरु, अवर सकल संताप." "व्यवहारसे देव जिन, निहचेसें है आप;
एहि बचनसे समझ ले, जिनप्रवचनकी छाप." इस प्रकार निश्चय सद्गुरु अपना आत्मा ही है।
*"अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।" आत्मा ही दुःखका और सुखका कर्ता है। सद्गुरु तो उपदेश देकर रुक जाते हैं। 'ब्राह्मण ब्याह करा देता है, पर घर तो नहीं चला देता।' यदि स्वयं उपदेशानुसार प्रवृत्ति न करे और उलटा चले तो सद्गुरु क्या करेंगे? 'जब जागेंगे
* उत्तराध्ययन अध्ययन २०, गाथा ३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org