________________
३२२
उपदेशामृत चाहिये? यदि मृत्यु न होती तब तो ठीक था, पर घड़ी भरमें फूट जाय ऐसा, पानीके बबूले जैसा या शीशे जैसा यह शरीर है तब तक 'बिजलीकी चकाचौंधमें मोती पिरो लेने के समान आत्महितकी साधना कर लेनी चाहिये।
ता. २२-२-१९२६
['परमात्मप्रकाश के वाचन प्रसंग पर] इन चार विषयों पर विजय प्राप्त करना दुष्कर या दुर्लभ है(१) जिह्वा-सब इंद्रियोंमें मुख्य इंद्रिय जिह्वा है। इसके जीतने पर सब इंद्रियोंको जीता जा सकता है। (२) मोह-आठ प्रकारके कर्ममें मुख्य मोहनीय है, इसको जीतने पर सभी कर्म जीते जा सकते हैं। (३) ब्रह्मचर्य-पाँच महाव्रतोंमें मुख्य ब्रह्मचर्य है, इसमें अपवाद नहीं है।
“एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार; नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार. पात्र विना वस्त न रहे. पात्रे आत्मिक ज्ञान:
पात्र थवा सेवो सदा. ब्रह्मचर्य मतिमान.'' (४) मनोगुप्ति–तीनों गुप्तियोंमें मुख्य मनोगुप्ति है। मनके कारण यह सब है।
इन चारोंको कैसे जीता जाय? मुनि मोहन०-“इंद्रियदमनकुं स्वाद तज, मनदमनकुं ध्यान ।'
प्रभुश्री-जब भी मनमें विचार आये कि यह ठीक लगेगा, या ऐसा हो तो ठीक, तो उसके विरुद्ध ही खड़े हो जाना चाहिये कि ऐसा कदापि नहीं होगा। इसी प्रकार मोहकी वृत्ति उठे या कामकी वृत्ति जागे, या किसी प्रिय वस्तुके संकल्प-विकल्प आते रहते हों तो वहाँ कटाक्षदृष्टि रखें और वृत्तिको रोकें । जहाँ तहाँ यही करना है। जड़ और चेतनका भेद करना है।
मुमुक्षु-'कृष्ण बाल ब्रह्मचारी हों तो जमुना मैया, मार्ग देना।' यों काम करते हुए लिप्त न हो उसका क्या समझना?
प्रभुश्री–साधन तो चाहिये-वर्षा, बीज और जमीनका संयोग हो तब बीज अंकुरित होता है, उसी तरह त्याग, वैराग्य और उपशम तो चाहिये ही! __एक साधुने हिमालयकी सर्दीमें, सर्दीका सामना करते हुए करवटें बदल बदलकर रात निकाली
और प्रातः सूर्योदय होने पर उठा और भुजायें ठोकते हुए बोला कि मैंने सर्दीके साथ लड़ाई कर विजय पाई है। पुरुषार्थकी जरूरत है।
"जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थ;
भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहि आत्मार्थ." “निश्चय वाणी सांभळी, साधन तजवा नो'य;
निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवा सोय." (श्री आत्मसिद्धि) शुष्कज्ञानी हो जानेकी जरूरत नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org