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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३२३ "अथवा निश्चयनय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय; लोपे सद्व्यवहारने, साधनरहित थाय." कृष्णकी बात तो ज्ञानीके संबंधमें कही जायेगी। पर यदि तू वैसा करने लगा तो भटकेगा। यह मार्ग नहीं है। ज्ञान तो जहाँ है वहाँ है। होगा तो 'नहीं है' कहनेसे चला नहीं जायेगा और नहीं है तो 'है' कहनेसे आ नहीं जायेगा। पर महामोहनीय कर्मका बंध होगा। ज्ञानीने जाना है वैसा ही आत्मा है। ___ जो भूल हो उसे तो बताना ही पड़ता है। चलते हुए बैलको कोई चाबुक मारता है? उन्मत्तता, स्वच्छंद, प्रमादका त्याग करना है। अंकुश तो अच्छा है। हम तो उधर, अंतमें, सबसे पीछे जा बैठे हैं, इसलिये बोलते हैं। किसीने हमारा ‘लघु' नाम रखकर अच्छा ही किया है। लघुता ही रखनेकी आवश्यकता है। किन्तु यदि मनमें मान रहता हो, तो लघु कहें या कुछ भी कहें, वह कुछ कामका नहीं है । 'घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृतं' यों कहनेवाले पंडित जैसा, या 'हाथी प्राप्तको मारता है या अप्राप्तको?' ऐसा वाद करनेवाले पोथीपंडित जैसा नहीं बनना है। मनमें ऐसा रहे कि 'ये महाराजा पधारे, अतः ये बोलेंगे। ये क्यों नहीं बोलते? क्या कम हो जायेगा? ये बोलें तो अच्छा । मुझे बोलना न पड़े।' यह सब छोड़ने जैसा है। प्रत्युत, बोलनेसे तो स्वाध्याय होता है, लब्धि बढ़ती है, प्रमाद नष्ट होता है। दो बोल बोलनेसे क्या कुछ बिगड़ जाता है? किसीका अहित होता है? परिणाम पर ही बड़ा आधार है। आप और मैं यहाँ बैठे हैं पर जिसके परिणाम बढ़ गये वही बड़ा है। मार्गशीर्ष सुदी १३, शुक्र, सं.१९८३ जैसे मृत्युके समय श्रावक मरनेवालेसे ऐसा कहते हैं कि तुझे अरिहंतकी शरण प्राप्त हो, शांतिनाथकी शरण प्राप्त हो, वैसे ही हमारी शैय्याके पास उस समय जो भी उपस्थित हों वे सब 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' का उच्चारण करें । इन शब्दोंके पुद्गलोंसे पूरा कमरा भर दें। ऐसा कौन अभागा होगा जिसे उस समय यह मंत्र अच्छा न लगेगा? यह सुननेसे वृत्ति उसीमें जाती है। मृत्युको क्षण-क्षण याद करना चाहिये। अभी मर ही रहा है। समाधिमरण करानेवालेको भी महालाभ होता है। पौष वदी ६, सोम, सं.१९८३ ['अमितगति श्रावकाचार में से श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंमें आठवीं आरंभत्यागकी और नवमी परिग्रहत्यागकी प्रतिमाओंके वाचन प्रसंग पर] जीवने अभी तक धर्मको जाना नहीं है। त्यागका फल मिलता है। 'त्यागे उसके आगे और माँगे उससे भागे!' ऐसी कहावत है। कंदमूल, लहसून, प्याज़, आलू आदि; हरे शाक, उदुंबर, बड़के फल, पीपलके फल-ऐसे अभक्ष्य फल खानेसे नीच गति होती है, बुद्धि बिगड़ती है। कितने दिन जीना है? कितने ही लोग घर बनवाकर उसमें रहनेसे पहले ही मर जाते हैं। मनुष्यभव प्राप्त कर यदि सावचेत न हुए तो नरक-तिर्यंचके भवमें दुःख भोगने पड़ेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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