________________
उपदेशसंग्रह-२
३२१ यों दयाका पालन करते हैं तो हमें भी ऐसा ही करना चाहिये। तबसे मानो दयाका पुनर्जन्म हुआ। नहीं तो ऐसा लगता था कि बहुत दया पाली, पर उससे कल्याण नहीं हुआ। पर जैसा है वैसा समझकर करना वही है। तबसे उन्होंने मुझमें दयाका प्रवेश करा दिया। आज दिन तक वही दृष्टि है। पानीमें कैसे चलना यह कृपालुदेवने बताया कि मुनियों, आगे पानी है, उपयोगपूर्वक चलियेगा। यों यों बिलौनेकी तरह पाँवसे पानी हिलाकर न चलियेगा; किन्तु कमर तक पानी हो तो भी पाँवोंको ध्यानसे ऊपर उठाकर फिर सँभालकर आगे रखना चाहिये। पानी हिले नहीं और अपकायके जीवोंको कष्ट न हो वैसे चलना भी उन्होंने सिखाया था। नदी पार करनी हो तो संथारा करे कि यदि पार करते हुए मगर या अन्य कोई जीव खींच ले जाये तो 'जीवनपर्यंत चौविहार', और पार हो जाये तो दूसरे किनारे पहुँचने तक। यों संथारा करके, प्रतिक्रमण, क्षमापना करके नदी पार करते। पार करनेके बाद पानी निथरने तक खड़े रहना चाहिये। कपड़ोको निचोड़ा नहीं जा सकता। हरी शाकभाजी समारते समय ज्ञानीको कितनी दया रहती है यह तो वे ही जानते हैं।
मुमुक्षु-काविठामें मच्छरोंमें बैठते पर उड़ाते नहीं। एक व्यक्ति हरे घासकी गठरी पर बैठा था, उसे कृपालुदेवने कहा, 'नीचे बैठो भाई, जीव दब रहे हैं।"
मुनि मोहन०-इस पुरुषने तो ठेठ मोक्षका मार्ग बता दिया है। मात्र हमारी कमी है। "हम देहधारी हैं या नहीं इसे जब याद करते हैं तब मुश्किलसे जान पाते हैं" ऐसी जिसकी दशा हो उसकी क्या बात करें ? हम सब तो उनकी दशा देखकर चकित हो जाते थे।
(विमलपुराण में से श्रेणिक राजाके चरित्र-वाचनके प्रसंग पर) यह भारी बात है! बहुत मर्मवाली बात है। कई बार शास्त्र शस्त्र बन जाते हैं। एक तो यहाँ वाचन होता है और एक अपने आप ही पढ़ लेते हो-उसमें बहुत भेद है। यहाँ भूल निकलती है, मूल बातकी ओर, आत्माकी ओर लक्ष्य रहता है। श्रेणिक राजा कहे या उसकी रानी कहे, पर सब कर्म और उनका जीवसे संयोग है या और कुछ? कर्म फूट निकले दिखायी देते हैं। अन्यथा कथा पढ़ते-सुनते जीव कैसे कैसे कर्म बाँध लेता है? यहाँ तो बातको फोड़कर उसका विस्तार कर ग्रहण करने योग्य पर विचार किया जाता है। यहाँ आत्माके सिवाय अन्य क्या हो सकता है? यह स्थान आप कैसा जानते हैं ? इस धर्मस्थानका कोई अपूर्व बल है! मात्र योग्यताकी कमी है, वैराग्यकी कमी है। ऐसा योग मिलना दुर्लभ है। चेतने जैसा है। फिर कुछ हो सकेगा? अभी हमारा कैसे भी करके धर्मध्यानमें प्रवृत्ति करनेका मन होता है, पर बल और स्थिरता कहाँसे लायें? यदि कुछ बलपूर्वक करने जायें और उससे कुछ शरीरमें गड़बड़ हो जाये तो उसे बराबर करनेमें जो थोड़ा बहुत होता है वह भी रुक जायें। जब तक साता (सुख-शांति) है तब तक चेत जाने जैसा है।
यह अवसर चूकने जैसा नहीं है। सावचेत होनेकी आवश्यकता है। एक ही खेतमें जैसी उपज करनी हो वैसी हो सकती है-गन्ना पैदा करना हो तो भी हो सकता है और तमाखू पैदा करनी हो तो भी हो सकती है। व्यापार आदिके लिये इतना अधिक करते हैं तब अपने जिस आत्माको पहचाना नहीं उसके लिये कुछ नहीं करेंगे? तमाखूके लिये जमीनको कितनी शुद्ध करनी पड़ती है और कितना अधिक परिश्रम करना पड़ता है, तब धर्मकी प्राप्तिके लिये पुरुषार्थ नहीं करना
(३१ Jain Education Treational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org