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उपदेशामृत है इसलिये अधिक वेदना होने पर भी याद आता है। इसके स्थान पर दूसरा अभ्यास कर रखा हो तो इसमें क्या कुछ पक्षपात चलता है कि वह याद आये और यह न आये? अवश्य आये। शरीरका यंत्र बिगड़ते कहाँ देर लगती है? जहाँ कफ छूटता न हो, श्वास रुंधा हो और पाठ पढ़ना हो या अन्य धर्मक्रिया करनी हो तो वह कैसे हो सकती है? किन्तु अभ्यास कर रखा हो तो अंतरंगपरिणाम–अंतर्या -उसीमें रहती है। मेरा कुछ भी नहीं है, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिये। 'मेरा मेरा' मानते हैं वह मिथ्यात्व है।।
ता. २१-२-१९२६ इतनी अधिक वेदना एक साथ आ जाती है और दिन प्रतिदिन पीड़ा, निर्बलता बढ़ती जाती है कि मानो सब कुछ नष्ट हो जायेगा। कल शाम ऐसी ही घबराहट हो गयी थी जिससे नीचे नहीं आ सके। (मुनि मोहनलालजीसे) कहिये, उस समय वेदनाका अनुभव होता है या नहीं?
मुनि मोहन०-ज्ञानीको भी वेदना तो होती है पर उसे उसकी कोई गिनती नहीं होती। कृपालुदेव, मुनि और सब लोग दोपहरमें नरोडामें जाते थे। तब अग्निसे अधिक तप्त रेत थी। वहाँ होकर जंगलमें जानेके लिये सब लोग निकले । वहाँ सब दौड़ादौड़ करते, कपड़े डालकर खड़े होते या टपाटप पाँव उठाते । किन्तु कृपालुदेवने अपनी चालमें कोई परिवर्तन नहीं किया, धीरे-धीरे चलते थे। किसीके पाँवमें जूते भी नहीं थे। सबको उस समय लगा कि देवकरणजी स्वामी व्याख्यान सुंदर देते हैं पर सच्चे ज्ञानी तो ये ही हैं। वहाँ बैठनेके स्थान पर गये तब भी कृपालुदेवने पाँव पर हाथ तक नहीं फेरा । पाँवमें लाल लाल छाले पड़ गये थे। कोमल शरीर और जूते बिना धूपमें चलनेका अभ्यास नहीं। अतः वेदना तो अधिक होती ही होगी।
प्रभुश्री-यह तो दशाकी बात है। उत्तरसंडाके बंगलेमें रहते थे तब मोती भावसार सेवामें रहता था। वह धोती ओढ़ाता, ढुकता, पर वापस खिसक जाती। मच्छर, बड़े बड़े डांस वहाँ खूब थे पर स्वयं न हिलते, न डोलते. पडे ही रहते।
कृपालुदेवके प्रथम समागममें निश्चयनयसे आत्माका बोध होनेसे बाह्य दया और क्रियाको छोड़ दिया। सभीको जैसे अपने-अपने गच्छमें आग्रह होता है वैसा आग्रह पहले तो बहुत था। देवकरणस्वामीसे अधिक दया पालनेकी, समानता करनेकी, महान गिने जानेकी बहुत उमंग थी। अतः उनसे अधिक तप करनेका होता। क्षयोपशम तो था नहीं पर शरीरका बल था। अतः जोर लगाकर भी खूब पढ़ता और कण्ठस्थ करता। अब तो हँसी आती है!-खंभा पकड़कर 'भक्तामर'की गाथाएँ रटकर ऐसी याद की कि सभी अक्षरोंका शुद्ध उच्चारण होता। अन्य संयुक्ताक्षरोंका स्पष्ट उच्चारण 'सम्यक्त्व'की भाँति नहीं हो सकता था, किन्तु परिश्रम करनेसे उसके सब संयुक्ताक्षर शुद्ध बोले जाते। चतुरलालजीको अब भी वेदांतका असर रहा है इसलिये वे एकदम शुष्कज्ञानी हो गये हैं। कम समझवालेको वेदांत जिसमें अकेले निश्चयनयकी बात है, ठीक बैठ जाता है और वह उसकी पकड़ कर बैठता है। अनेकांतदृष्टि सूक्ष्म है। __हमारी सब बात वे (परमकृपालुदेव) तो जानते थे, उनसे क्या अज्ञात था? एक बार चिंउटी यों जा रही थी उसे धीरेसे हाथपर चढ़ाकर यों एक ओर सँभालकर रखा। तबसे मुझे लगा कि ये
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