SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह - २ " धींगधणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट ? विमल जिन दीठां लोयण आज ।" ऐसा महापुरुषोंने भी कहा है । शरणकी भी बलिहारी है ! यही कर्तव्य है । इसे ही समकित कहा है। I ३१९ ता. २०-२-२६, शामको ('मूलाचार' में से 'संसारभावना के प्रथम श्लोकका पुनः वाचन) अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व - आत्माकी श्रद्धा नहीं सो मिथ्यात्व, अश्रद्धान। मेरा शरीर, मेरा घर, मेरा कुटुंब - इन्हें अपना माना है, यह भी एक प्रकारकी श्रद्धा है; पर सच्ची श्रद्धा नहीं है, मिथ्या है। संयोग हैं वे दिखायी तो देते हैं। आपबीती कहूँ या परबीती ? मुनि मोहन० - आपबीती, प्रभु ! प्रभुश्री - शरीरमें कोई चाबी घूम जाय तो सब कुछ घूम जाता है। पीड़ा, पीड़ा और पीड़ा । श्वास लेनेमें भी घबराहट हो और कुछ भी आराम न रहे। यह सब क्या है ? नोकर्म, द्रव्यकर्मका संयोग । उसमें जीव परिणत होता है । उस समय भावना तो दूसरी होती है, उसमें लक्ष्य रखना होता है और वेदनामें लक्ष्य नहीं रखना होता, पर क्या ऐसा हो सकता है ? मुमुक्षुगण - ऐसा होता तो नहीं । मुनि मोहन० – परमकृपालुदेवको किसीने जूते पहननेको दिये थे । उन्हें पहनकर चलनेसे पाँव लहूलुहान हो गये। जब दूसरोंने ध्यान दिलाया तब बोले - " तुमने कहा तब जाना कि फफोले हो गये हैं और लहू निकला है । " Jain Education International प्रभुश्री - वह बात अलग है । हम जा रहे हों और हाथमें कुछ लगे या खरोंच आ जाय, किन्तु भान न हो तो पता नहीं चलता। इस समय यह बात नहीं है । अभी यहाँ ढोल-नगारे बजते हों और शास्त्रवाचन होता हो तो सुनायी देगा ? वैसे ही अभी बुढ़ापेके दुःख आ गये हों और खदबदाने लगे हों तो पता नहीं चलेगा? यह तो अनुभव है कि जब वेदना घेर लेती है तब कुछ नहीं हो पाता । परंतु भाव तो वहाँ (आत्मामें ) ही होते हैं । यदि घर देखा हुआ हो तो उसमें घुसा जा सकता है। बच्चा माँको पहचानने जितना बड़ा हो तो वेदनाके समय 'माँ माँ' पुकारता है, वैसे ही अंतर्चर्या वैसी रहती है। ज्ञानीसे मिलनेके बाद भाव बदल जाते हैं । वह अंतर्चर्या - भावना आत्माकी रहती है । संयोग देखें, पर उसमें परिणत न हो वह अंतरात्मा । अंतरात्मा कहीं परदेश गया है ? पर भान नहीं है, वही करना है । अंतरात्मा, अंतर्चर्या, भावना - यह तो ज्ञान है । ज्ञान किससे होता है ? ज्ञानीसे । "सद्गुरुना उपदेश वण, समजाय न जिनरूप; समज्या वण उपकार शो ? समज्ये जिनस्वरूप. " 'देखे परम निधान' ऐसा भी महापुरुषोंने कहा है । जिनदेव - आत्मा ! उनके द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग - मुक्त होना - उसे नहीं देखनेसे संसार - परिभ्रमण है । पहलेसे अभ्यास कर रखना जरूरी है । कृपालुदेवने पत्रांक ४६० में कहा है तदनुसार सावधान होनेकी आवश्यकता है। आग लगे - घर जलने लगे- तब कुआ खोदे तो आग कैसे बुझेगी ? कुछ पहलेसे करके रखा हो तो वेदनाके समय काम आता है । मरते समय अन्य सब याद आता है - शरीर, कुटुंब, बच्चे । इसका अभ्यास हो गया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy