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उपदेशामृत
ता. १८-२-१९२६, सबेरे प्रभुश्री-कोई सुने पर समझमें न आये तो उसका क्या? मुनि मोहन०-समकितीको सब सुलटा होता है।
प्रभुश्री-सुननेकी भावना हो, उसीमें दृष्टि रखे, किन्तु पूर्वभवके अंतराय या आवरणके कारण सुनायी न दे तो क्या वह निष्फल जायेगा?
यह माणेक माँजी नित्य आती हैं। इन्हें कुछ भी समझमें नहीं आता, किन्तु सुननेकी इच्छा करे तो कुछ लाभ होगा या नहीं?
यदि उसीमें सिर खपाते रहें तो कर्म मार्ग दे देता है। ज्ञानी अंतर्मुहूर्तमें कोटि कर्मका क्षय करते हैं । इसी प्रकार कोई समकिती श्रद्धावाला जीव हो और उसे शास्त्र सुननेका लक्ष्य होने पर भी समझमें न आये तो भी उसे क्रियाका फल तो होता होगा या नहीं?
मुमुक्षु-पहले मागधी भाषाका पता ही नहीं था। अब उसकी गाथा ठीक तरहसे पढ़ी जा सकती है। यह समझमें न आने पर भी सिर खपानेका परिणाम है।
प्रभुश्री-यह गुडगुडिया वैष्णव है। इसे पहले तो सबकी तरह वैकुंठ, गोलोक आदिका ख्याल होगा। पर अब शास्त्रमें कैसी समझ पड़ती है? यह भी कैसा था? किन्तु पढ़कर जानकार बना तो समझ सकता है न? इस प्रकार क्या होता है उसका हमें क्या पता लगेगा? पर ज्ञानी तो जान रहे हैं। कुछ आश्चर्यकारी बात है! धन्ना श्रावकका जीव कैसा था? पशु चरावे वैसा । उसे मुनिका योग हुआ, वहाँ उपदेश सुना और समझमें आये या न आये, मुझे तो वे कहें वैसा करना है-यह व्रत लूँ, यह व्रत लूँ-ऐसी भावना रहती थी, पर किया कुछ नहीं था, फिर भी भावना ही भावनामें मृत्यु होनेसे देव होकर वहाँसे च्यव कर धन्ना नामका बड़ा लक्षाधिपति श्रावक हुआ, कितनी ही कन्याओंसे शादी की और मोक्षकी तैयारी की। ज्ञानीकी आज्ञासे श्रुतज्ञान सुनने पर परोक्ष ज्ञान होता है और दीनबंधुकी कृपादृष्टिसे फिर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, पुद्गल और जीव भिन्न भासित होते हैं।
शामको ['मूलाचार में से 'संसारभावना में अश्रद्धानरूप मिथ्यात्वके विषयमें वाचन] श्रद्धासे विपरीत अश्रद्धा। श्रद्धा किसकी? सद्देव, सद्गुरु और सद्धर्मकी। इसमें सत् ही आत्मा है, इसलिये यह आत्मा ही देव, आत्मा ही गुरु और आत्मा ही धर्म है ऐसा मानना चाहिये। इस आत्माकी उपस्थिति हो, श्रद्धा हो तो कर्मबंध नहीं होता। __मृत्यु न हो तो कोई बात नहीं, पर वह तो कब आयेगी उसका कुछ भरोसा नहीं है। अतः जितना समय हाथमें है उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। शेष आयुष्य तो इसके लिये ही बिताने योग्य है। सबके लिये समय बिताते हो तो इसके लिये, आत्माके लिये इतना नहीं करोगे? समझदार व्यक्तिको तो उसीकी शोध होती है, उसके सिवाय कुछ अच्छा ही नहीं लगता-न हो सके उसका खेद रहना चाहिये । कृपालुदेवने हमें कहा था कि "हमसे मिलनेके बाद अब तुम्हें क्या भय है?"
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